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१०८ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
पर ही टिका हुआ है । यह बात एक परिचित उदाहरण द्वारा समझाता हू |
मान लीजिये, किसी राजा ने आपको एक सुन्दर महल दिया । महल फर्नीचर आदि से खूब सजा हुआ है । राजा ने ऐसा सुन्दर महल देने के स थ एक शर्त की कि इस महल मे, खेत मे पैदा होने वाली कोई भी चीज नही आ सकेगी । अब आप विचार कीजिये कि उस सुन्दर महल मे आपका जीवन कितने दिनो तक टिक सकेगा ? दूसरे, आपको एक झोपडी दी जाये और वहाँ खेत मे पैदा होने वाले अन्न आदि का उपयोग करने की छूट दी जाये तो क्या उससे आपका जीवन-व्यवहार बखूबी नही चलता ? अवश्य चल सकता है ।
इस प्रकार जीवन में खेती का अपूर्व स्थान है, किन्तु आपको खेत नही चाहिए, खेत में पैदा हुई वस्तुएँ चाहिए ! यह कितनी भूल है । सच्ची सम्पत्ति तो खेत ही है । और सम्पत्ति को चोर चुरा सकते है | मगर खेती को कोई चुरा नही सकता । ऐसा होने पर भी आज तुम्हारे पास कितने खेत है ? कदाचित् तुम खेत न रखते होओ तो ऐसा अभिमान तो न रखो कि हम खेती नही करने वाले बडे है और खेती करने वाले किसान नीचे - हल्के हैं । तुम अपने सजातीय और साधर्मी किसानो के साथ सबध जोडने की हिम्मत रखो, कायरता मत लाओ । ससार मे हिम्मत की कीमत है ।
संघ का धर्म क्या है और सघ को किस प्रकार अपने सव सदस्यों को अपनाना चाहिये, यह बतलाने के लिए प्राचीन काल का एक उदाहरण तुम्हारे सामने रखता हू | आज के सघ का नाम सब तो है, मगर उसमे सगति नही है । सगति होने पर संघ सम्पूर्ण राष्ट्र मे हलचल पैदा कर सकता है ।