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८८ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
इसलिए भगवान् की वाणी पर दृढ विश्वास रखकर उसकी सहायता से अपने अवगुण घो लो तो तुम्हारा कल्याण होगा ।
शास्त्र मे कही कही इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है कि जैसे भगवान् से प्रश्न किये गये हो और भगवान् ने उनका उत्तर दिया हो और कही-कही ऐसा है कि भगवान् स्वय ही फरमा रहे हो । परन्तु यह वात स्पष्ट है कि भगवान् ने जो बात अपने ज्ञान में देखी है वही बात कही है। और यह बात उन्होंने कभी - कभी बिना पूछे भी कही है । मगर जो बात उन्होंने अपने ज्ञान मे नहीं देखी वह पूछने पर भी नही कही ।
उत्तराध्ययन के विषय में कहा जाता है कि यह भगवान् की अन्तिम वाणी है । अतः इस वाणी का महत्व समझ "कर श्रद्धा, प्रतीति तथा रुचिपूर्वक हृदय में उसे उतारा जाये तो अवश्य आत्मा का कल्याण होगा । भगवान् की इस वाणी को हृदय में उतारने के लिए श्रद्धा, प्रतीति और रुचि समान होनी चाहिए और व्यवहार भी वैसा ही होना चाहिए अर्थात् जैसा विचार हो वैसा ही उच्चार भी हो और जैसा उच्चार हो वैसा ही आचार हो । विचार, उच्चार और आचार मे तनिक भी विपमता नही होनी चाहिए । विषमता होना एक प्रकार की कुटिलता है और कुटिलता से भगवान् की वाणी द्वारा लाभ नही उठाया जा सकता । भगवान् की यह वाणी जिस रूप मे समझी जाये उसी रूप मे कही जाये और व्यबहार मे लाई जाये तो उसके द्वारा अनेक जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते है और होगे । शास्त्र में अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि भगवान् की वाणी से अनेक पुरुष कषाय एव दुखरूपी अग्नि को सदा के लिए उपशात कर सके है ।