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६४-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
एवं धम्म अकाऊणं, -जो. गच्छइ परं भवं । । । गच्छन्तो सो दुही होइ, बाहीरोगेहि पीडियो । अद्धाण जो महत तु, सप्पाहिज्जो पवज्जई । गच्छन्तो सो सुही होइ, छुहातहाविवज्जिो ॥ एवं धन्म पि काऊण, जो गच्छइ परं भवं । गच्छन्तो सो सुही होई, अप्पकम्म अवेयणे ॥
-उ० सूत्र १६ अ० १५-२१ गा० माता । मान लो कि एक बड़ा और भयकर जगल है। उसमे व्याघ्र और साप वगैरह का बहुत भय है और वहाँ चोर तथा लुटेरे भी हैं। उस जगल का मार्ग भी कटीला है। रास्ते मे खाने-पीने की भी व्यवस्था नही है। उस जगल के, मार्ग पर एक आदमी खडा है और जाने वाले से कहता है कि इस जगल मे कहाँ जाते हो ? यह बडा हीविकट और भयानक है । इसमे अनेक प्रकार की दिक्कते है। फिर भी अगर इस मार्ग से जाना ही है तो मेरे कथनानुसार चलना । मैं इस जगल मे गया हू और जानता ह. कि इस जगली रास्ते में कितनी कठिनाइयाँ और दिक्कतें हैं । मै तुम्हे ऐसा साहित्य देता है कि जिससे कदाचित तुम उलटे रास्ते चले गये तो भी यह जान सकोगे कि खानापीना कहाँ मिलेगा ? मेरा दिया साहित्य अपने पास रखोगे। तो तुम्हे रास्ते में किसी प्रकार की कठिनाई, नही होगी और सकुशल जगल के उस पार पहुँच जाओगे । जब एक , मनुष्य ने ऐसा कहा तो उसी समय वहाँ खडा हुआ दूसरा मनुष्य कहने लगा-जगल का यह रास्ता ‘कठिन, कटीला और कष्टकर है, 'यह किसने देखा है। यह झूठमूठ ही डरा रहा है । मैं कहता हूं कि इस मार्ग मे कोई कठिनाई नही