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पहला बोल-६३
दु.खी ? अगर सुखी बनना है तो क्या दुःख के मार्ग पर चलना उचित है ? मान लीलिये एक आदमी दूसरे गाँव जाने के लिए रवाना हुआ । रास्ते में उसे दूसरा आदमी मिला। उसने पूछा-भाई, तुम कहा जाते हो ? देखो, इस मार्ग में बाघ का भय है, इसलिये इधर से मत जाओ । ऐसा कहने वाला मनुष्य अगर विश्वसनीय होगा और जाने वाला अगर दु.ख में नही पडना चाहता होगा तो वह निषिद्ध मार्ग मे आगे बढेगा ? नही । ऐसा होने पर भी अगर कोई उस मार्ग पर चलता है तो उसके विषय मे यही कहा जायेगा कि वह दुःख का अभिलाषी है-सुख का अभिलाषो नही है।
उदयपुर मे एक मुसलमान भाई कोठारीजी (श्री बलवन्तसिहजी) के साथ व्याख्यान सुनने आया था। पहले तो ऐसा मालम होता था कि वह धर्म-विषयक बात करने में डरता है, मगर कोठारीजी के साथ व्याख्यान मे या पहँचा और सयोगवश उस दिन उसके हृदय की शका का समाधान हो गया । यद्यपि मैंने उसे लक्ष्य करके व्याख्यान मे कोई वात नही कहो थी, फिर भी सहज भाव से व्याख्यान मे ऐसी बात का प्रसग आ गया कि उसकी शका का समाधान हो गया । उस समय मृगापत्र का प्रकरण चलता था। मगापुत्र के प्रकरण के आधार पर कहा जा सकता है किमाताजी | कितनेक लोग परलोक के विषय में कहते हैं कि स्वर्ग, नरक आदि किसने देखे हैं ? कौन वहाँ जाकर आया है । परन्तु
प्रद्धाणं जो महत तु, अप्पाहिज्जो पवज्जई । यच्छन्तो सो दुही होइ, छुहातण्हाए पीडियो।