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अध्ययन का प्रारम्भ-८३
के अमोघ प्रभाव से अर्जुन माली और चडकौशिक सांप आदि पापी जीवों के कर्म-रोगो का नाश हुआ है। भगवान् की वाणी पर प्रतीति-विश्वास करने के बाद रुचि भी होनी चाहिए । कोई कह सकता है कि भगवान् की वाणी द्वारा अनेक पापी जीवो के पापो का क्षय हुआ है, यह तो ठीक है किन्तु उस वाणी पर रुचि लाना अर्थात् उसे जीवनव्यवहार मे उतारना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। मगर यदि भगवान् की वाणी पर रुचि उत्पन्न नहीं हो तो समझना चाहिये कि अभी तक श्रद्धा और विश्वास मे न्यूनता है । जो रोगी भय के कारण औषध का सेवन ही नहीं करता, उसका रोग किस प्रकार मिट सकता है ? सासारिक जीव भगवान् की वाणी को जीवनव्यवहार मे न लाने के कारण ही कष्ट भोग रहे है । यो तो अनादिकाल से ही जीव उन्मार्ग पर चलकर दुख भुगत रहे हैं, मगर उनसे कहा जाये कि सीधी तरह स्वेच्छा से कुछ कष्ट सहन कर लो तो सदा के लिये दुख से छूट जाओगे तो वे ऐसा करने को तैयार नही होते और इसी कारण वाणी रूपी औषध की विद्यमानता में भी वे कर्मरागो से पीडित हो रहे हैं।
भगवान् की वाणीरूपी दवा पर श्रद्धा, प्रतोति, रुचि करने के अनन्तर उसकी स्पर्शना भी करनी चाहिए । अर्थात् अपने बल, वीर्य और पराक्रम आदि का दुरुपयोग न करते हुए सिद्धान्तवाणी के कथनानुसार आत्मानुभव करने में ही उनका उपयोग करना चाहिए । इस तरह शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार भगवद्वाणी को जितने अश मे स्वीकार किया हो उतने अश का वरावर पालन करना चाहिए और इसी प्रकार बढते हुए भगवद्वाणी के पार पहुंचना चाहिए ।