________________
अध्ययन का श्रारम्भ - ७५
नता दी जाती है और गुण का ही नाम लिया जाता है । व्यवहार में कहा जाता है - यह घी क्या है, आयु ही है । अन्न क्या है, प्राण ही है । यद्यपि घी और अन्न, आयु एव प्राण से भिन्न वस्तुएँ हैं, फिर भी यहाँ गुणी को गौण करके गुण को प्रधान पद दिया गया है। कदाचित् इन उदाहरणों में भूल भी हो सकती है परन्तु 'सम्यक्त्वपराक्रम' नाम के विषय में किसी प्रकार की भूल नही है । यहाँ गुणी को गौण करके गुण को प्रधानता दी गई है, यह स्पष्ट है | अतएव यहाँ समकित का अर्थ समकिती समझना चाहिए | क्योकि समकित गुण है और गुण कोई पराक्रम नही कर सकता । पराक्रम करना गुणी का ही काम है । इस कारण समकिती जो पराक्रम करे वही पराक्रम यहाँ समझना चाहिए ।
सुधर्मास्वामी ने सर्वप्रथम, समुच्चय रूप मे कहा - 'मैंने' भगवान् से सुना है ।' परन्तु इस कथन मे यह जिज्ञासा हो सकती है कि किस भगवान् से सुना है ? भगवान् तो ऋषभदेव भी थे और अन्य तीर्थकर भी भगवान् थे । शास्त्रो मे अनेक स्थलो पर स्थविरो को भी भगवान् कहा है और गणधर भी भगवान् कहलाते हैं । ऐसी स्थिति मे भगवान् कहने से किसे समझा जाये ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए स्पष्ट किया गया है कि 'मैने भगवान् महावीर से यह सुना है ।' भगवान् महावीर भी कैसे थे ? इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहा है- 'मैने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार सुना है ।'
श्रमण का अर्थ है - तपस्या मे पराक्रम करने वाला या समस्त प्राणियो के प्रति समभाव रखने वाला । सामान्य रूप से साधुओ में समभाव होता है परन्तु भगवान् महावीर