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७६-सम्यक्त्वपराक्रम (१) सम्पूर्ण रूप से समभाव धारण करते थे। उपसर्ग देने वाले और जहरीला डक मारने वाले पर भी उनका भाव वैसा ही था, जैसा वदना करने वालो पर था । जो आपको घोर कष्ट पहँचा रहा है, जो आपको डक मारकर काट रहा है, उस पर भी समभाव रखना कितना अधिक कठिन है, इस बात का विचार करोगे तो यह खयाल आये विना नहीं रहेगा कि समभाव रखना कितना कठिन कम है ! कितनेक लोग अपना मस्तक उतार कर देना तो पसन्द करते हैं, मगर उनसे कहा जाये कि समभाव रखकर एक जगह बैठ जावो तो, उन्हे ऐसा करना कठिन जान पड़ता है । इसके विरुद्ध असीम शक्ति के स्वामी होते हुए भी भगवान ने कैसी क्षमा धारण की । वह अपने को कष्ट देने वाले का प्रतीकार कर सकते थे, चाहते तो उसे दड भी दे सकते थे, मगर उन्होने प्रतीकार करने के बदले प्रतिबोध देना ही अपना कर्त्तव्य समझा । जो भगवान इस प्रकार समभाव की साक्षात् मूर्ति थे, उन्हे श्रमण न कहा जाये तो फिर किसे श्रमण कहा जायेगा ?
जिन्होने इस सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन की प्ररूपणा की, वह श्रमण थे, दीर्घतपस्वी थे, भगवान् थे और महावीर थे । भगवान् का 'महावीर' नाम जन्म का नही किन्तु देवो का दिया हुआ गुणनिष्पन्न नाम है । देवो ने भगवान् की अटलता, महावीरता देखकर उन्हे महावीर सज्ञा दी थी। भगवान् ने महावीर पद प्राप्त करने से पहले कितना पराक्रम किया था ? जबकि तुम कितना आलस्य करते हो ! इस पर विचार तो करो । अगर तुम भगवान् के बराबर पराक्रम नहीं कर सकते तो अन्तत. उनका नाम ही अपने