________________
४२-सभ्यक्त्वपराक्रम (१)
गुरु की पाटपरम्परा का कैसा विचार-विवेक रखते हैं | और उनमे कैसी नम्रता और निरभिमानता है ।
'मैंने भगवान् से इस प्रकार सूना ।' सुधर्मास्वामी के इस कथन का एक कारण यह भी हो सकता है कि सुधर्मास्वामी छद्मस्थ थे । छद्मस्थ से किसी वान में भूल भी हो सकती है, परन्तु केवलज्ञानी भगवान की वाणी में तो किसी भूल की सम्भावना ही नही है। छद्मस्थ को बात पर सदेह भी किया जा सकता है किन्तु भगवान की वात पर सदेह करने का कोई कारण नही। इसी अभिप्राय से सुधर्मास्वामी ने कहा है कि 'मैने भगवान् से जो सुना है, वही तुझे सुनाता हू।' इस कथन से किसी प्रकार के सदेह की गुंजाइश ही नही रहती ।
मान लीजिये, एक मनुष्य अपनी जीभ से सी बातें कहता है और दूसरा आदमी एक ही बात कहकर उसके प्रमाण में शास्त्र-वचन वतलाता है। ऐसी स्थिति मे किसकी बात प्रामाणिक मानी जायगी ? श्रावक तो वही बात मान सकता है जो शास्त्र-सम्मत हो। शास्त्र से विरुद्ध मानने वाला थावक तो क्या सम्यग्दष्टि भी नही हो सकता । इसी प्रकार सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से जो कुछ कहा है, वह भगवान् के नाम पर कह कर उसे प्रमाणभूत बना दिया है । अर्थात् सुधर्मास्वामी ने कहा कि मैं अपनी ओर से कुछ भी नही कहता । मैं जो कुछ कहता हूं, भगवान् का कहा ही कहता हूँ । ऐसा कह कर सुधर्मास्वामी ने अपना कथन प्रामाणिक सिद्ध कर दिया है ।
आज कहाँ भगवान महावीर । कहाँ सुवर्मास्वामी । कहा जम्बूस्वामी ! और कहाँ आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले सुनाये गये शास्त्रवचन ! फिर भी आज जो शास्त्र