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४०-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
सुना है वही सुनाता हू? यह लघुता उन्होने किसलिए धारण की ? यद्यपि ठीक-ठीक यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करने का उद्देश्य क्या था, तथापि इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रकार की नम्रता और निरभिमानता रखने वाला कभी दुःख मे नही पडता। अभिमान ही ससार मे लोगों को खराब करता है । सुधर्मास्वामी में ऐसा अभिमान ही नही रहा था ।
सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा--'मैंने भगवान् महावीर से सुना है, वही तुझे सुनाता हू।' इस कथन का उद्देश्य यह बतलाना भी हो सकता है कि भगवान् की पाटपरम्परा किस प्रकार चली आ रही है।
शास्त्रो द्वारा हमे ज्ञात है कि चौदह हजार साधुओ मे गौतस्वामी सव से बड़े थे और सुधर्मास्वामी उनसे छोटे थे । ऐसा होने पर भगवान् के पाट पर गौतमस्वामी विराजमान नही हुए । इसका कारण यही मालूम होता है कि भगवान् का निर्वाण होते ही गौतमस्वामी केवलज्ञानी हो गये थे । केवलज्ञानी होने के कारण गौतमस्वामी की योग्यता कुछ कम नही हो गई थी, फिर उन्ही को पाट पर क्यो नही विठलाया गया ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पाट पर बिठलाने मे योग्यता का प्रश्न नही था किन्तु पाट-परम्परा का प्रश्न था । पाट-परम्परा तभी चल सकती है जब गुरुशिष्य की परम्परा बराबर चलती रहे और शिष्य सूत्रादि के सम्बन्ध मे यह कहता रहे कि 'मैने अपने गुरु से इस प्रकार सुना है, अगर गौतमस्वामी इस प्रकार कहते कि मैंने गुरु से ऐसा सुना है, तो उनके केवलीपन मे बाधा उपस्थित होती । केवली को अपना स्वतन्त्र मत स्थापित करना चाहिए