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५०-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
न करो । मिद्धान्त भी गरीर के लिए अनुचित कार्य करने का निपेध करता है । सिद्धान्त की इस बात का तुम्ह खूब विचार करना चाहिए ।
भगवान् महावीर के निकट रह कर गौतमस्वामी ने जो शक्ति सम्पादन की थी, वह उन्होने सुधर्मास्वामी को सौप दी । सुवर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को और जम्बूस्वामो ने प्रभवस्वामी को वह गक्ति प्रदान की। इस प्रकार क्रमशः चली आई सिद्धान्त की शक्ति हमारे पास भी पाई है और उस गक्ति का सदुपयोग करने का उत्तरदायित्व हमारे मस्तक पर है । इसीलिए मैं तुमसे कहता है- यह धर्म को नौका तैयार है। ससार के मोह मे न फंसकर धम-नीका पर भारुढ हो जाओ तो तुम्हारा कल्याण होगा और हमारे उत्तरदायित्व का भार हल्का होगा । हम लोग सहज ही तुम्हे मिल गये है, मगर सहज ही मिली हुई प्रत्येक चीज को कीमत कुछ कम नहीं होती । कान सहज ही मिले है, पर क्या कान की कीमत मोती मे कम है ? नही । इसो प्रकार भले ही हम सहज ही तुम्हे मिल गये है, तथापि हमारे कथन काजो परम्परा मे चला आया है मूल्य समझो और अपना कल्याण करो।
थी सुवर्मास्वामी अपने गिप्य जम्बूस्वामी से कहते है -
सुय मे पाउसं । तेण भगवया एवमक्खायं । इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नामज्झयण समणण भगवया महावीरेण कासवेण पवेइय । ज सम्म सद्दहित्ता, पत्तइत्ता, रोयइत्ता, फासित्ता, पालइत्ता, तीरित्ता, सोहइत्ता, पारा हित्ता, प्राणाए अणुपालइत्तावहवे जीवा सिझति, वुज्झति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ।