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७२-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
की रक्षा के लिये जरासा भी कष्ट नही सहन कर सकते ? यद्यपि पूर्ण दया का पालन तो चीदहवे गुणस्थान में ही सभव है, फिर भी उससे पहले अपनी शक्ति के अनुसार तो दया का पालन करना ही चाहिये और दयाधर्म में कितनी प्रवल शक्ति रही हुई है और उसके द्वारा आत्मा का किस प्रकार कल्याण हो सकता है, इस बात की परीक्षा करनी चाहिये।
अहिंसा का पालन करने के कारण कभी दुख हो ही नही सकता । आजकल नये रोग नजर आते है उनके लिये अहिसा उत्तरदायी नहीं है वरन् हिंसा ही जवावदार है । शास्त्र कदापि नहीं कहता कि तुम मैले-कुचले रहो और गदगी भरे रखो । वस्तुतः मैलेपन और गदगी के कारण ही रोग फैलते हैं। यह एक किस्म की हिंसा ही है। इसी प्रकार रगडे-झगडे, रार-तकरार और क्लेश-कदाग्रह भी हिंसा के ही फल है । अहिंसा के कारण कभी झगडा नहीं होता। न्यायालय में जाकर जाँच करो तो मालूम होगा कि एक भी मुकदमा अहिंसा के कारण नही हुआ है । अहिसा की महिमा बतलाते हुए कहा है-- गज भव सुसलो राखियो, कीनी करणा सार । श्रेणिक घर जइ अवतरयो, अगज मेघकुमार ॥ रे जीवा ।। जिनधर्म कीजिये सदा, धर्मना चार प्रकार । दान शील तप भावना पाली निर-अतिचार ॥ रे जीवा० ॥
इस प्रकार अहिंसा तो सदैव सुखदायिनी है । हाथी द्वारा निर्मित मडल में इतने ज्यादा जीव आ घुसे कि हाथी को पर रखने की भी जगह न बची । ऐसे समय में हाथी को क्रोध आ सकता था या नही ? तुम्हे तो इतने में ही क्रोध आ जाता है कि दूसरा तुम्हारे आगे क्यो वैठ गया ?