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अध्ययन का आरम्भ - ४१
अर्थात् अपना ही निर्णय देना चाहिए । कदाचित् गौतम स्वामी अपनी ही तरफ से कहते और भगवान् महावीर से सुनने का उल्लेख न करते तो ऐसा करने से भगवान् की परम्परा भग हो जाती । इसी कारण सुधर्मास्वामी को पाट पर विराजमान किया गया था। इस प्रकार सुधर्मास्वामी ने भगवान् के पाट पर बठ कर जो कुछ कहा, वह सब भगवान् के ही नाम पर कहा है ।
उस समय के सघ का प्रबन्ध कितना उत्तम था और गुरुपरम्परा कायम रखने के लिए कितना ध्यान दिया जाता था । यह ध्यान देने योग्य है । सुधर्मास्वामी चार ज्ञान और चौदह पूर्वी के स्वामी थे और भगवान् के निर्वाण के पश्चात् उनके पाट पर बैठ कर / इच्छानुसार कर सकते थे, पर उन्होने ऐसा कुछ भी नही किया, वरन् गुरुपरम्परा सुरक्षित रखी । ऐसे युगप्रधान महापुरुष ही अपना और पराया कल्याण कर सकते हैं ।
हम और आप आत्मा का कल्याण करने के लिए ही यहाँ एकत्र हुए हैं, परन्त आत्मकल्याण के लिए सर्वप्रथम अहकार को तिलांजलि देने की आवश्यकता है । अहकार का त्याग किये बिना आत्मा का कल्याण नही हो सकता । अहकार का त्याग करने के लिए सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा कि 'मैंने भगवान् महावीर से जो सुना है वही तुझे सुनाता हूं ।' सुधर्मास्वामी के यह वचन सुनकर जम्बूस्वामी के मन मे कैसा भाव उत्पन्न हुआ होगा ? उनके हृदय में प्रथम तो सूत्र के प्रति बहुमान उत्पन्न हुआ होगा कि यह सूत्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित है । दूसरे, सुधर्मास्वामी के प्रति भी ऐसा सद्भाव उत्पन्न हुआ होगा कि मेरे गुरु अपने