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सम्यक्त्वपराक्रम-२६
के असली स्वरूप को भूलकर पर पदार्थ में आनन्द मानना आस्रव है । इस अध्ययन मे आस्रव को जीतने के लिए अप्रमत्त रहने का मार्ग प्रतिपादन किया गया है । यो तो चौथे गुणस्थान से ही अप्रमाद गुणस्थान प्रारम्भ हो जाता है परन्तु शास्त्र में सातवे गुणस्थान से ही अप्रमाद स्वीकार किया गया है; क्योकि चौथे आदि गुणस्थानो मे कषाय की कुछ-कुछ तीव्रता रहती है । यद्यपि सातवे गुणस्थान मे भी थोडा (सज्वलन) कषाय मौजूद रहता है। फिर भी वह इतना हल्का होता है कि उसकी गणना नहीं की गई । तनिक भी असावधानी न रखते हुये प्रास्रव को जीतने का प्रयत्न करना अप्रमत्तता है । इस प्रकार की अप्रमत्तता सातवे गुणस्थान पर आरूढ होने से ही प्राप्त होती है ।
राग-द्वेष को उत्पन्न करना प्रमाद है और जीतना अप्रमाद है । अगर तुम अप्रमाद प्राप्त करना चाहते हो तो राग-द्वेष को जीतो । पूछा जा सकता है कि राग-द्वेष को किस प्रकार जीतना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि इस अध्ययन मे राग-द्वेप को नहीं जीत सके हो तो न सही, मगर इतना तो मानो कि राग-द्वेष प्रमाद है और इन्हे जीतना अप्रमाद है । तुम्हे यह स्वीकार करना चाहिए कि राग-द्वेष त्याज्य हैं परन्तु अपनी निर्बलता के कारण मैं अभी तक उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सका हूं। इस प्रकार राग-द्वेष का स्वरूप समझो । राग और द्वेष से आत्मा का पतन होता है । अगर तुम आत्मा का पतन नही चाहते तो राग-द्वेप का स्वरूप समझकर उन्हे त्याज्य समझो ।
राग-द्वेष के अनेक रूप हैं। कई बार ऐसा होता है कि बाहर से राग-द्वेष प्रतीत होते हैं किन्तु भीतर और ही कुछ