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प्रवेशक
श्री संवेगरंगशाला
के लिए कई और महान् ग्रन्थ बन सकते हैं। वह तो स्वयं को पढ़ने से ही अनुभव हो सकता है।
इस महाग्रन्थ के कर्ता परमपूज्य महा-उपकारी आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा हैं। ये नवांगी टीकाकार परम गीतार्थ आचार्य देव श्री अभयदेव सूरीश्वरजी महाराज के बड़े गुरु भाई थे। उनके अति आग्रह से इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ के विषय में श्री देवाचार्य रचित 'कथा रत्न कोष' की प्रशस्ति में इस तरह उल्लेख मिलता है।
__ आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी वयरी वज्र शाखा में हुए हैं। जो आचार्यश्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी के शिष्य थे, उन्होंने 'संवेग रंगशाला' ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ११३९ में की थी। वि.सं. ११५० में विनय तथा नीति से श्रेष्ठ सभी गुणों के भंडार श्री जिनदत्त गणी नामक उनके शिष्य ने उसे सर्व प्रथम पुस्तक रूप में लिखा है। तथा आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी के शिष्य आचार्य श्री प्रसन्न सूरिजी की प्रार्थना से श्री गुणचन्द्र गणि ने इस ग्रन्थ को संस्कारित किया है। एवं आचार्य श्री जिनवल्लभ गणी ने इस ग्रन्थ का संशोधन किया है। विशेष परिचय इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में देख लें।
खरतर गच्छ पट्टावली के अनुसार आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी नाम से कई आचार्य हुए हैं। परन्तु ये आचार्य श्री जिनेश्वर सूरीश्वरजी के शिष्य आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी हुए हैं, ये प्रथम जिनचन्द्र सूरिजी कहलाते हैं। इन्होंने अपने जीवनकाल में सात महाग्रन्थों की रचना की है। इसमें सर्वश्रेष्ठ रचना यह संवेग रंगशाला नामक आराधना शास्त्र है।
पूज्य ग्रन्थकार श्री ने स्वयं अनुभव गम्य शास्त्रीय रहस्य केवल परोपकार भाव से लिखा है। स्याद्वाद दृष्टि से ज्ञाननय और क्रियानय, द्रव्यास्तिकनय और पर्यायास्तिकनय, निश्चय नय और व्यवहार नय आदि विविध अपेक्षाओं का सुन्दर समन्वय किया है। इस महाग्रन्थ का एकाग्र चित्त से श्रवण और अध्ययन करें एवं इसे कंठस्थ कर हृदयस्थ करें तो वह आत्मा समाधिपूर्वक जीवन यात्रा सफल कर सकता है।
इस महाग्रन्थ की प्रशंसा कई ग्रन्थों में मिलती है। श्री गुणचन्द्र गणि ने वि.सं. ११३९ में रचित प्राकृत महावीर चरित्र में लिखा है कि
संवेग-रंगशाला न केवलं कब्ज विरयणा जेण ।
भव्य जण विम्हयकरी विहिया संजम पवितो वि ।। अर्थात् आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीजी ने केवल संवेग रंगशाला काव्य रचना ही नहीं की अपितु भव्यजनों को विस्मय करानेवाली संयम वृत्ति का संपूर्ण विधान कहा है।
तथा श्री जिनदत्त सूरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी उत्तरार्ध में रचित प्राकृत 'गणधर सार्धशतक' नामक ग्रन्थ में प्रशंसा लिखी है कि
संवेगरंगशाला विसालसालोवमा कया जेण ।
रागाइवेरिभयभीत-भव्वजणरक्खणनिमित्तं ।। अर्थात् श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी ने रागादि वैरियों से भयभीत भव्यात्माओं के रक्षण के लिए विशाल किल्ले के समान संवेग-रंगशाला की रचना की है।
तथा आ. जिनपति सूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में रचित पंचलिंगी विवरण में प्रशंसा की है कि
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