Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ कलश १ जीवद्रव्य में ही पाया जाता है, पुद्गलादि अजीव द्रव्यों में नहीं। इसीकारण यह चित्स्वभाव, भगवान आत्मा का लक्षण है, पहिचान का चिन्ह है। इसके माध्यम से भगवान आत्मा को अजीवादि परद्रव्यों में भिन्न जाना जा सकता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान-दर्शन उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा गया है। जानना-देखना जीव का स्वभाव है। जानने-देखने को ही चेतना कहते हैं; इसीकारण यहाँ चित्स्वभाव शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जानना-देखना जीव का स्वभाव तो है; पर वह किसको जानता-देखता है अथवा किसको जानना-देखना उसका स्वभाव है? इसी के उत्तर में कहा गया है कि भगवान आत्मा सब पदार्थों को जानने-देखने के स्वभाव वाला है ; वह सर्वज्ञस्वभावी है। आत्मख्याति के परिशिष्ट में जिन ४७ शक्तियों का निरूपण है, उसमें सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्व शक्तियों का भी निरूपण है। यद्यपि यह पर्याय की बात लगती है; क्योंकि जानने-देखने की क्रिया तो पर्याय में ही होती है, तथापि यह पर्यायस्वभाव की बात है, प्रगट पर्याय की बात नहीं; सर्वज्ञता की बात नहीं, सर्वज्ञस्वभाव की बात है । यहाँ जिस समयसाररूप भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है, वह सर्वज्ञपर्याय सहित भगवान आत्मा की बात नहीं है, अपितु सर्वज्ञस्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की बात है। यहाँ सर्वज्ञस्वभाव की बात करके सर्वज्ञाभाववादियों का निराकरण भी कर दिया गया है। ___ यहाँ एक प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि ऐसा भगवान आत्मा जाना जा सकता है या नहीं? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तो जाना ही जाता १. आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २ सूत्र ८

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