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कलश १
यहाँ तो समय शब्द का सामान्य अर्थ आत्मा ही लेना है और सार शब्द का अर्थ है द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित। इसप्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित आत्मा ही शुद्धात्मा है, समयसार है ।
उस शुद्धात्मा को जानना, पहिचानना, उसमें जमना-रमना, उसमें उपयोग का झुकना, नमना ही वास्तविक नमस्कार है । ___ यहाँ जिस समयसार अर्थात् शुद्धात्मा को नमस्कार किया गया है, उसे चार विशेषणों से समझाया गया है :
(१) भावाय (२) चित्स्वभावाय (३) सर्वभावान्तरच्छिदे एवं (४) स्वानुभूत्या चकासते ।
नम: के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होने से समयसार को समयसाराय, भाव को भावाय एवं चित्स्वभाव को चित्स्वभावाय के रूप में रखा गया है। मूल शब्द भाव, चित्स्वभाव और समयसार ही हैं। इसीप्रकार स्वानुभूत्या चकासते एवं सर्वभावान्तरच्छिदे के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए।
यहाँ उक्त चार विशेषणों से समयसार के द्रव्य, गुण और पर्याय स्वभाव को समझाया गया है । भाव कहकर द्रव्य, चित्स्वभाव कहकर गुण और सर्वभावान्तरच्छिदे तथा स्वानुभूत्या चकासते कहकर पर्याय स्वभाव को स्पष्ट किया गया है; क्योंकि मोह के नाश का उपाय द्रव्यगुण-पर्याय से निज भगवान आत्मा को जानना ही है । __ प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में कहा गया है कि जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह अपने आत्मा को भी उसीप्रकार जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है ।