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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...9 तप के प्रभाव से अस्थिर वस्तु स्थिर होती है, वक्र वस्तु सरल होती है, दुर्लभ वस्तु सुलभ होती है तथा जो दुःसाध्य है वह सुसाध्य होती है।
चक्रवर्ती की छ: खण्ड जैसी कठिन साधना भी तप के द्वारा ही फलीभूत होती है। इस प्रकार तीर्थङ्करों एवं गीतार्थ-मुनियों द्वारा निर्दिष्ट तप को विधिवत करने से मनुष्यों को मनवांछित सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। जैनाचार्यों ने तपस्या पर बल देते हुए इतना तक निर्दिष्ट किया है कि यदि दान देने की शक्ति न हो तो पुण्यवन्त मनुष्यों को स्वयं की शारीरिक-शक्ति के अनुसार तपःकर्म अवश्य करना चाहिए। ___सामान्यतया तपश्चर्या के मुख्य दो प्रकार हैं - 1. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तर तप। ये विविध तप छह-छह प्रकार के कहे गये हैं इस तरह तप के बारह प्रकार होते हैं। षडविध बाह्य तप के अवान्तर अनेक भेद हैं।
तीर्थङ्करों एवं मुनिवरों ने तप के प्रत्येक भेद-प्रभेदों की क्रम पूर्वक विधि बतलायी है। उनमें से कुछ तप केवलज्ञानियों द्वारा कहे गये हैं, कुछ तप गीतार्थ मुनिवरों द्वारा बताये गये हैं तथा कुछ तप ऐहिक फल के इच्छुकों द्वारा आचरित हैं। इस प्रकार सर्व तपों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
यहाँ तप विधियों का स्वरूप बतलाने के पूर्व मुख्य रूप से कहने योग्य यह है कि आचारदिनकर नामक ग्रन्थ में सभी तपों को तीन भागों में बांटा गया है। उन वर्गीकृत किञ्चिद् तपों के सम्बन्ध में प्रश्नचिह्न उपस्थित होते हैं जैसे कि आचार्य वर्धमानसूरि ने वर्ग तप, श्रेणी तप, घन तप, महाघन तप आदि को गीतार्थ भाषित कहा है जबकि उनका मूल उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त होता है। यह आगमसूत्र भगवान महावीर की साक्षात अन्तिम वाणी का संकलन रूप है और इसे अन्तिम उपदेश के रूप में मानते हैं तब उक्त वर्गादि तप तीर्थङ्कर प्रणीत होने चाहिए। आचार्य वर्धमानसरि ने कनकावली, मुक्तावली, रत्नावली आदि आगम वर्णित तपों को भी गीतार्थ भाषित कहा है जबकि उन तपों की आराधना प्राय: श्रेणिक राजा की महारानियों ने की है। यह वर्णन अन्तकृत दशा नामक आठवें अंग सूत्र में है और अंग सूत्रों में तीर्थङ्करों की मूल वाणी को संकलित एवं गुम्फित मानते हैं। दूसरी बात, राजा श्रेणिक चौबीसवें तीर्थङ्कर परमात्मा महावीर के शासनकाल में हुए हैं, अत: उनकी रानियों द्वारा आचरित तप तीर्थङ्कर प्रज्ञप्त होने चाहिए।