________________
जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...121 अधोलोक में मुख्यत: नारकी जीवों एवं भवनपति देवों का निवास है तथा मध्यलोक में प्रमुख रूप से तिर्यञ्च जीवों, मनुष्यों और ज्योतिष्क एवं व्यन्तरवाणव्यन्तर देवों का निवास है। ___मध्यलोक को तिरछा लोक भी कहते हैं। यह लोक असंख्यात द्वीप-समुद्रों से आवृत्त है। यहाँ प्रथम जम्बूद्वीप है और अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र है। उसके बाद अलोकाकाश है जहाँ आकाश के सिवाय और कुछ नहीं है। हम जम्बूद्वीप में रहते हैं, यहाँ से आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप है।
नन्दी अर्थात वृद्धि उसमें भी 'ईश' अर्थात श्रेष्ठ यानि सर्व प्रकार की श्रेष्ठ ऋद्धि-समृद्धि युक्त। नन्दीश्वर द्वीप समस्त प्रकार की ऋद्धि-समृद्धियों से परिपूर्ण है।
यहाँ अञ्जनादि पर्वतों, बावड़ियों, वनों आदि पर 52 शाश्वत जिनालय हैं। प्रत्येक जिन चैत्य में चार-चार शाश्वत प्रतिमाएँ हैं और वे सभी रत्न-स्वर्णादि से जटित हैं। ___तीर्थङ्करों के जन्म, दीक्षा आदि कल्याणकों के अवसर पर तथा शाश्वत अट्ठाइयों के दिनों में देवी-देवता, इन्द्रादि यहाँ आकर अट्ठाई महोत्सव करते हैं। लब्धिधारी चारणमुनि भी इस तीर्थ की यात्रार्थ आया करते हैं। सामान्य मानव नन्दीश्वर तीर्थ तक नहीं जा सकता। वह मात्र अढ़ाई द्वीप में ही जन्म लेता है
और वहीं मृत्यु पाता है। तब यहाँ रहे हए मनुष्यों के द्वारा वहाँ के शाश्वत चैत्यों की आराधना कैसे की जाय? एतदर्थ गीतार्थों ने इस तप की स्थापना की है।
आचार्यों के अभिमत से इस तप के द्वारा आठ भव में मोक्ष प्राप्त होता है। यह तप मोक्ष-प्राप्ति का पारम्परिक कारण है, अत: श्रमण एवं गृहस्थ दोनों को यह तप अनिवार्य करना चाहिए। विधिमार्गप्रपा आदि में इस तप से सम्बन्धित निम्न तीन प्रकार प्राप्त होते हैंप्रथम रीति
तहा अमावसाए, मयंतरेण दीवूसवामावस्याए, पडिलिहिय नंदीसर जिणभवन-पूया-पुव्वं उववासाइं सत्तवरिसाणि नंदीसर-तवो।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 26 आचार्य जिनप्रभसरि के मतानुसार यह नन्दीश्वर तप किसी भी अमावस्या तिथि से अथवा मतान्तर से दीपावली की अमावस्या से प्रारम्भ कर नन्दीश्वर