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140...सज्जन तप प्रवेशिका के बाद चौथा मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करते हैं। पाँचवाँ केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षमार्ग बतलाते हैं।
सिद्ध - अरिहन्त परमात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। अष्ट कर्मों का क्षय करके लोक के अग्रभाग पर विराजमान आत्मा सिद्ध कहलाती है। सिद्ध जन्म-मरण की परम्परा से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
आचार्य - अरिहन्त परमात्मा सभी क्षेत्रों में हमेशा विद्यमान नहीं रहते, अतः सदाकाल सर्व क्षेत्रों में मुक्ति मार्ग के प्रचार का दायित्व आचार्यों पर रहता है। आचार्य चतुर्विध संघ के नेता होते हैं। वर्तमान में आचार्य की आज्ञा तीर्थङ्कर तुल्य मानी जाती है।
उपाध्याय - आचार्य के निश्रारत साधु-साध्वियों को अध्ययन-अध्यापन करवाने का प्रमुख कार्य उपाध्याय करते हैं। स्वयं आचार शुद्धि रखते हुए साधु एवं श्रावक वर्ग को आचार शुद्धि के लिए सदा प्रेरित करते रहना भी इनका कार्य है।
साधु - पंच महाव्रत के पालक, षड्जीवनिकाय के रक्षक, विषय-कषाय के त्यागी, समता के योगी साधक साधु कहलाते हैं।
इन पाँचों परमेष्ठियों के 12+8+36+25+27 = 108 गुण होते हैं। जप माला में 108 मनके इन्हीं गुणों के प्रतीक हैं। सम्पूर्ण कर्मों से रहित होने के लिए एवं स्वयं की शुद्ध दशा को पाने के लिए पंच परमेष्ठी के सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है। इसलिए मोक्षाभिलाषियों को श्रद्धापूर्वक पंच इष्ट की उपासना करनी चाहिए। यह तप पंच परमेष्ठी की आराधना के लिए किया जाता है। इस तप के करने से सर्वविघ्नों का क्षय होता है।
__ आचारदिनकर में इसकी निम्न विधि दी गयी हैविधि
उपवासैकस्थाने आचाम्लैकाशने च निर्विकृतिः। प्रति-परमेष्ठि च षटकं, प्रत्याख्यानस्य भवतीदम्।।
__ आचारदिनकर, पृ. 359 इस तप में अरिहंत परमेष्ठी की आराधना के लिए प्रथम दिन उपवास, दूसरे दिन एकलठाणा, तीसरे दिन आयंबिल, चौथे दिन एकासना, पाँचवें दिन नीवि, छठे दिन पुरिमड्ढ और सातवें दिन आहार में आठ ग्रास ग्रहण करें- शेष