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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...171 • प्रचलित विधि के अनुगमनार्थ इस तप काल में प्रतिदिन अरिहन्त पद का गुणना आदि करें।
जाप साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 12 20 3. सौभाग्यकल्पवृक्ष तप ___जिस वृक्ष के सामने चिन्तन करने मात्र से मनवांछित वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है, उसे कल्पवृक्ष कहा गया है। युगलिक काल में जन्म लेने वाले मानवों का निर्वाह कल्पवृक्ष से ही होता है। उन्हें असि-मसि-कृषि आदि किसी तरह की व्यापारिक या खाद्य प्रवृत्ति नहीं करनी पड़ती है। इस दुषमकाल में कल्पवृक्षों का प्रभाव समाप्त हो चुका है। तदुपरान्त यह तप सौभाग्य देने में कल्पवृक्ष के समान है अत: इसे सौभाग्यकल्पवृक्ष तप कहते हैं। ___ इस तप के फल से शाश्वत सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सौभाग्य सर्व जनों को प्रिय है। व्यावहारिक विवाह आदि प्रसंगों पर भी सौभाग्य की वांछा की जाती है। ___आचारदिनकर के अनुसार यह तप साधुओं के लिए भी आचरणीय है जो भौतिक दृष्टि से उचित नहीं है। चूँकि साधु प्राय: कभी भी कोई तप फल की आकांक्षा से नहीं करते हैं, अतः यह तप श्रावकों के लिए ही करणीय होना चाहिए। विधिमार्गप्रपा आदि में इसकी निम्न विधि उल्लिखित है - चित्ते एगंतरओ सव्वरसं पारणं च विहिपुव्वं सोहग्गकप्परूक्खो, एस तवो होइ णायव्यो।।
पंचाशक प्रकरण, 19/35 तहा सोहकग्गप्परूक्खो चित्ते एगंतरावासा। गुरुदाण विहिपुव्वं सव्वरसं पारणगं च।।
विधिमार्गप्रपा, पृ.25 सौभाग्य-कल्पवृक्षस्तु, चैत्रेऽनशन-संचयैः। एकान्तरैः परं कार्य, तिथौ चन्द्रादिके शुभे।।
आचारदिनकर, पृ. 366 यह तप चैत्र मास की कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण मास में
चैत्रेन