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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...181 तप करने से श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति होती है। इस तप का निर्देश गृहस्थ आराधकों के लिए किया गया है।
विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों में इसकी प्रामाणिक विधियाँ कही गयी हैं। विधि
तहा सत्तसु भद्दवएसु पइदिणं नव-नव-नेवज्ज-ढोवणेण जिणजणणि-पूया-पुव्वं सुक्क-सत्तमीए आरब्भ तेरासि-पज्जतं एगासण-सत्तगं कीरइ, जत्थ से मायार तवो। भद्दवयसुद्ध-चउद्दसीए पइवरिसं उज्जवणं कायव्व। वलि-दुद्ध-दहि-घिय, खीर-करंबय-लप्पसिया-घेउर-पूरीओ चउसीसं खीच्चडी पूआ पुइ दाडिमाइ- फलाणि य सुपुत्त-सावियाणं दायव्वाइं। पीयवत्थ-अंगरायनया तंबोलाइं दाऊण।।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 27 भादस्य शुक्लपक्षे तु, प्रारम्भ सप्तमी तिथिं । त्रयोदश्यन्तमाधेयं तपो हि मातृसंज्ञकम् ।।
आचारदिनकर, पृ. 368 यह तप भाद्र शुक्ला सप्तमी से प्रारम्भ कर भाद्र शुक्ला त्रयोदशी तक सात दिन एकासन के द्वारा किया जाता है।
मूल विधि के अनुसार यह सात वर्षों में पूर्ण होता है। इसमें सात वर्ष के 7-7 दिन जोड़ने पर कुल 49 दिन लगते हैं। आचार्य जिनप्रभसूरि के मत से इस तप में प्रतिदिन माताओं के चित्रित पट्ट के आगे नये-नये पकवान चढ़ायें। साथ ही सप्तमी को दूध, अष्टमी को दही, नवमी को घी, दशमी को खीर, एकादशी को करंबक (दही भात), द्वादशी को लापसी और त्रयोदशी को घेवर चढ़ायें।
उद्यापन – विधिमार्गप्रपाकार के अनुसार इस तप के दरम्यान प्रतिवर्ष भाद्र शुक्ला चतुर्दशी को उद्यापन करना चाहिए। उस दिन चौबीस-चौबीस मालपुए, अनार आदि विविध जाति के फल, खिचड़ी का पात्र तीर्थंकर परमात्मा की माताओं के समक्ष रखें। चौबीस सुहागिन माताओं को वस्त्र, ताम्बूल आदि प्रदान
करें।
आचारदिनकर के अनुसार यह उद्यापन हर दो-दो वर्ष के अन्तराल में पूर्वोक्त रीति से ही करना चाहिए। इस प्रकार सात वर्षों के मध्य तीन उद्यापन करें तथा चौथा उद्यापन सातवें वर्ष में तप पूर्णाहुति के प्रसंग पर करें।