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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...205 2. पश्चिम दिशा में - पाँचवें से बारहवें तीर्थङ्कर तक कुल आठ प्रतिमाएँ।
3. उत्तर दिशा में - तेरहवें से बाईसवें तीर्थङ्कर तक, कुल दस प्रतिमाएँ। 4. पूर्व दिशा में - तेईसवें और चौबीसवें तीर्थङ्कर की कुल दो प्रतिमाएँ।
यह तपश्चरण पूर्वोक्त प्रतिमाओं की संख्या क्रम के अनुसार किया जाता है। विधि
तपसुधानिधि (पृ. 230) के निर्देशानुसार इसमें सर्वप्रथम निरन्तर चार उपवास करके पारणा करें, फिर निरन्तर आठ उपवास करके पारणा करें, फिर लगातार दस उपवास करके पारणा करें, फिर दो उपवास करके पारणा करें। इस प्रकार इस तप में 24 उपवास और 4 पारणा कुल 28 दिन लगते हैं।
उद्यापन - इस तप के पूर्ण होने पर 24-24 की संख्या में ज्ञान-दर्शनचारित्र के उपकरण चढ़ायें और यथाशक्ति प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति एवं साधर्मी भक्ति करें।
• आचार्य सम्मत परम्परा से इस तप में अष्टापदतीर्थ की आराधना निम्न रीति पूर्वक करनी चाहिएजाप
साथिया खमा. कायो. माला श्री अष्टापदतीर्थाय नमः 24 24 24 20 8. कण्ठाभरण तप
इसका दूसरा नाम सिद्धिवधू कण्ठाभरण-तप है। जैसे नवविवाहित वधू के कण्ठ में आभूषण शोभित होता है वैसे ही मक्ति रूपी नारी के कण्ठ में आत्मगुणों का आभूषण शोभायमान हो, एतदर्थ यह तप किया जाता है। सामान्यतया इस तप की प्रवृत्ति बहुत से प्रान्तों में देखी जाती है।
यह तप दो प्रकार से किया जाता है। उसकी विधियाँ निम्न हैं -
प्रथम प्रकार - तपसुधानिधि (पृ. 231) के मतानुसार इस तप में प्रथम बेला करके पारणा करें। फिर उपवास कर पारणा करें, फिर अट्ठम करके पारणा करें। फिर उपवास और अन्त में बेला करके पारणा करें। इस प्रकार इसमें 9 उपवास और 5 पारणा कुल 14 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
द्वितीय प्रकार - दूसरे विकल्प के अनुसार इस तप में प्रथम छट्ठ करके पारणा करें, फिर सात उपवास एकान्तर पारणे से करें, फिर अट्ठम (तेला) करके