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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...219 जाप
साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 1230 21. लघु संसारतारण तप
चरमावर्त्त अवस्था को प्राप्त करने वाले भव्य जीवों का संसार अत्यल्प रह जाता है, उसी लक्ष्य से इस तप का नाम “लघुसंसारतारण-तप" रखा गया है। यह तप करने से अति अल्प संसार का परिभ्रमण भी शीघ्र समाप्त हो जाता है। इसकी प्रचलित विधि निम्न प्रकार है -
इस तप में सर्वप्रथम तीन आयंबिल करके उपवास करें। फिर पुन: तीन आयंबिल और उपवास करें। फिर पुन: तीन आयंबिल और उपवास करें। इस प्रकार 9 आयंबिल और 3 उपवास कुल बारह दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
उद्यापन और साथिया आदि बृहत संसारतारण तप के समान जानना चाहिए। 22. षट्काय तप
जैन विज्ञान में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय- इन छ: प्रकार के जीवों को 'षट्काय' की संज्ञा दी गयी है। अहिंसक को इन षट्काय जीवों का सदैव रक्षण करना चाहिए। यह तप षट्काय जीवों की रक्षा करने एवं आत्मतुला सिद्धान्त को आत्मसात करने के उद्देश्य से किया जाता है।
विधि - प्रचलित विधि के अनुसार इस तप में लगातार छह उपवास करें। इस तरह छह दिनों में यह तप पूर्ण हो जाता है।
• गीतार्थ सामाचारी का अनुपालन करते हुए इसमें छहों दिन अरिहन्त पद की क्रियाएँ करेंजाप
साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 12 20 23. चिन्तामणि तप
जैसे गायों में कामधेनु, वृक्षों में कल्पवृक्ष श्रेष्ठ होता है, वैसे ही मणियों में चिन्तामणि रत्न उत्तम माना गया है। यहाँ चिन्तामणि का अभिप्राय आत्मा की निजी सम्पदा अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय से है। यह तप चेतना का शाश्वत खजाना