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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...169 विधिवत करने से सर्वाङ्ग सुन्दरता की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों ने यह आगाढ़ तप मुनि एवं गृहस्थ उभय वर्गीय आराधकों के लिए आवश्यक बतलाया है। आज इस तप का प्रचलन नहीं के बराबर है। इसकी प्रामाणिक विधि निम्न प्रकार है -
अट्ठववासा एगंतरेण, विहिपारणं च आयामं। सव्वंगसुंदरो सो होइ, तवो सुक्क पक्खम्मि।।
पंचाशक, 19/30 तहा सुक्कपक्खे अट्ठोववासा एगंतरआयंबिलपारणेण । सव्वंगसुंदरो खमाभिग्गहजिणपूयामुणिदाणपरेण विहेओ ।।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 25 शुक्लपक्षेऽष्टोपवासा, आचाम्लान्तरिताः क्रमात् । विधीयन्ते तेन तपो, भवेत्सर्वांगसुन्दरम् ।।
आचारदिनकर, पृ. 365 पंचाशक प्रकरण आदि ग्रन्थों के अनुसार इसमें शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन से आठ उपवास एकान्तर आयम्बिल के पारणे से करें अर्थात शुक्ल पक्ष की एकम के दिन उपवास करके पारणे में आयम्बिल करें- इस प्रकार आठ उपवास और सात आयम्बिल द्वारा पन्द्रह दिन में यह तप पूर्ण करें। इस तपस्या में शक्ति के अनुसार क्षमा, संयम आदि दस प्रकार के धर्मों का पालन करते हुए कषायादि का त्याग करें। इसका यन्त्र न्यास यह है -
तप दिन- 15, शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक | द्वि. तृ. | च. | पं. | ष. | स. | अ. | न. | द. | ए. | द्वा. | .
| तप | उ. | आ. उ. | आ. उ. आ. | उ. |आ. | उ. | आ. उ. आ. | उ. |आ. | उ
उद्यापन - इस तप के अनुमोदनार्थ पूर्णिमा के दिन बृहत्स्नात्र पूजा करें, फिर परमात्मा के आगे रत्नजड़ित स्वर्णमय पुरुष रखें तथा संघ वात्सल्य एवं संघपूजा करें।
• गीतार्थ आचार का अनुसरण करते हुए तपस्या काल में अरिहन्त पद