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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...93 की बृहत्स्नात्र पूजा करें, छह विगयों के पकवान सहित रजत का चन्द्र, स्वर्ण के 32 यव और 32 वज्र चढ़ायें, 480 मोदक चढ़ायें, मुनियों को वस्त्रादि उपकरण बहरायें तथा संघ की भक्ति करें।
गीतार्थ परम्परानुसार इस तप की आराधना में निम्न जापादि करेंजाप साथिया खमासमण कायो. माला ॐ नमो सिद्धाणं 888 20 7. वर्धमान तप
वर्धमान का अर्थ है बढ़ता हुआ। यह तप बढ़ते हुए क्रम से किया जाता है अथवा इस तप में एकाशना आदि तप क्रमश: बढ़ते हुए किये जाते हैं इसलिए इसे 'वर्धमान तप' कहा गया है। ___इस तप में अनुक्रमश: इस अवसर्पिणी कालखण्ड के भरत क्षेत्र में होने वाले चौबीस तीर्थङ्करों की आराधना की जाती है। इस तप के फल से तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध होता है, क्योंकि जैसा साध्य होता है साधक को वैसे ही फल की प्राप्ति होती है। यह तप मुख्यत: तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के लक्ष्य से साधु एवं गृहस्थ उभय के लिए आवश्यक बतलाया गया है।
इस तप के चार प्रकारान्तर प्राप्त होते हैं। प्रथम रीति
जत्थ आइतित्थगरस्सएगं, दुइज्जस्स दुन्नि, जाव वीरस्स चउवीसं आयंबिल-निव्वियाईणि तस्स विसेसपूयापुव्वं कीरंति। पुणो वीरस्स एगं जाव उसहस्स चउवीसं, तओ पडिपुन्नो हो इत्ति।।
(विधिमार्गप्रपा, पृ. 27) विधिमार्गप्रपा के अनुसार इस तप में पूर्वानुक्रम से सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान की आराधना निमित्त एक आयंबिल, फिर अजितनाथ भगवान की आराधना निमित्त दो, फिर संभवनाथ भगवान की आराधना निमित्त तीन- इस प्रकार एक-एक आयंबिल की वृद्धि करते हुए भगवान महावीर की आराधना निमित्त चौबीस आयंबिल करें। फिर पश्चानुक्रम से प्रभु महावीर के निमित्त एक आयंबिल ऐसे चौबीस तीर्थंकरों के क्रम से एक-एक आयंबिल बढ़ाते हुए प्रभु आदिनाथ के निमित्त चौबीस आयंबिल करें।