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खमासमण
माला
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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...95 चतुर्थ रीति में 600 एकाशना और 24 पारणा-कुल 1 वर्ष, 8 महीने और 19 दिन में पूर्ण होते हैं।
उद्यापन - इस तप की प्रसिद्धि एवं उसके बहुमानार्थ चौबीस तीर्थङ्करों की बृहत्स्नात्र पूजा करें, परमात्मा के सम्मुख चौबीस-चौबीस की संख्या में पुष्प, फल, पकवान आदि चढ़ाएं, साधर्मीवात्सल्य एवं संघभक्ति करें।
प्रचलित-विधि के अनुसार इस तप के दौरान जिस दिन जिस तीर्थङ्कर की आराधना हो, उस दिन उस तीर्थङ्कर की विशेष रूप से पूजा भक्ति करें।
जाप - इस तप में प्रत्येक तीर्थङ्कर के नाम के आगे 'सर्वज्ञाय नमः' यह पद जोड़ें। जैसे- आदिनाथ सर्वज्ञाय नमः, इसी तरह अन्य तीर्थङ्करों का भी जाप करें। साथिया
कायो. 12
12 8. परमभूषण तप
यहाँ परमभूषण का अभिप्राय मोक्ष रूपी आभूषण से है। लोक व्यवहार में मानव की श्रेष्ठता का मापदण्ड उसके पहने हुए वस्त्रालंकारों से होता है, क्योंकि बाह्य जगत में रचे-पचे जीवों को बाहरी सजावट ही पसन्द आती है, किन्तु आभ्यन्तर जगत में मानव के श्रेष्ठतम गुणों का ही मूल्य होता है। आत्मज्ञान को प्राप्त करना श्रेष्ठ व्यक्ति का लक्षण है। जब आत्मा को आत्मा का भान हो जाता है तब उसे पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। वह अपनी निजी सम्पत्ति का सदा के लिए सम्राट् बन जाता है।
इस तप के फल से मोक्ष रूपी परम आभूषण की प्राप्ति होती है। मोक्ष आभूषण की तुलना में जड़ जगत के सभी आभूषण कीचड़ के समान हैं। कीचड़ का जितना मूल्य है मोक्ष रूपी लक्ष्मी के सामने बाह्य वैभव का भी उतना ही मूल्य रह जाता है। __आचारदिनकर (पृ. 344) के अनुसार इस तप को करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्रादिक उत्कृष्ट आभूषण प्राप्त होते हैं। किन्हीं ने 'आदि' शब्द से चक्रवर्ती के योग्य मुकुट, कुण्डल आदि आभूषणों को ग्रहण किया है। ।
आचार्य वर्धमानसूरि के मत से इस तप के द्वारा परम सम्पदा रूप आत्म गुणों की भी प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि इस तप के सम्यक् आचरण से