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28... सज्जन तप प्रवेशिका
गमन करता हुआ सिंह अपने अतिक्रान्त मार्ग को पीछे लौटकर फिर देखता है, यह सिंह का जातिगत स्वभाव है। इसी अर्थ में 'सिंहावलोकन' शब्द का प्रयोग हुआ है। सिंह की इसी गति के समान क्रम से आगे बढ़ना और साथ ही पीछे आना, फिर आगे बढ़ना और फिर पीछे आना - इस प्रकार जिस तप में अतिक्रमण किये हुए उपवास के दिनों को फिर से सेवन करके आगे बढ़ा जाए, वह सिंहनिष्क्रीडित तप कहलाता है।
इस तप में उपवास अक्रम पूर्वक होते हैं, क्योंकि इसमें तप उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है । अन्तकृत्दशासूत्र ( 8 / 3 ) के अनुसार इस तप की आराधना श्रेणिक राजा की महारानी महाकाली ने की थी । इस सूत्र में प्रस्तुत तप का विधिवत उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत आगम की अनुवादिका ने लिखा है कि जैसे काली देवी ने रत्नावली तप की प्रथम परिपाटी के पारणे में दूध, घृतादि सभी पदार्थों को ग्रहण किया, दूसरी परिपाटी के पारणे में इन रसों को छोड़ दिया, तीसरी परिपाटी में लेप मात्र का भी त्याग कर दिया तथा चतुर्थ परिपाटी में उपवासों का पारणा आयंबिल से किया वैसे ही महाकाली देवी ने लघु सिंहनिष्क्रीडित तप की प्रथम परिपाटी में विगयों को ग्रहण किया, दूसरी परिपाटी में विगयों का त्याग किया, तीसरी परिपाटी में लेप - मात्र का भी त्याग और चौथी परिपाटी में उपवासों का पारणा आयंबिल तप से किया।
यह आगाढ़ तप साधु एवं श्रावक दोनों के लिए करने योग्य है। इसकी तप-विधि निम्न प्रकार है -
विधि
गच्छन् सिंहो यथा नित्यं, पश्चात भागं विलोकयेत् । सिंह - निष्क्रीडिताख्यं च, तथा तप उदाहृतम् ।। एक द्वयेक त्रियुग्मैर्युग-गुण-विशिखैर्वेदषट् पंचाक्ष्यैः । षट्कुंभाश्वैर्निधानाष्ट, निधिहयगजैः षट्हयैः पंचषड्भिः ।। वेदैर्बाणैर्युगद्वित्रिशशि- भुजकुभिश्चोपवासैश्च
मध्ये |
कुर्वाणानां समन्तादशनमिति तपः सिंह- निष्क्रीडितं स्यात् ।। आचारदिनकर, पृ. 350
इस तप में सर्वप्रथम एक उपवास करके पारणा किया जाता है। इसी प्रकार आगे दो उपवास कर पारणा, पुनः एक उपवास कर पारणा, तीन उपवास कर