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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...65 ये दिन विशेष माने गये हैं अत: इन दिनों स्वाभाविक रूप से धर्म का वातावरण बना रहता है और धर्मफल से आत्मा उच्च गति को प्राप्त करती है। इसीलिए इस तप को दुर्गति का विनाशक कहा गया है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों दोनों के लिए करने योग्य है। इसकी तप-विधि निम्न है - विधि
अष्टमीभ्यां समारभ्य, शुक्लाश्वयुतचैत्रयोः । राकां यावत्सप्तवर्ष, स्वशक्त्याष्टाह्निकं तपः ।।
- आचारदिनकर, पृ. 338 यह तप आश्विन और चैत्र मास की शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ कर पूर्णिमा तक किया जाता है। इसमें अपनी शक्ति के अनुसार एकाशना, नीवि, आयंबिल या उपवास करना चाहिए। इस प्रकार सात वर्ष तक करने से यह तप पूर्ण होता है।
उद्यापन - इस तप के दिनों में बृहत्स्नात्र-विधि से जिनेश्वर प्रभु की नित्य पूजा करनी चाहिए तथा तप के पूर्ण होने पर छप्पन छप्पन लड्ड, नैवेद्य, फल आदि चढ़ाकर विशिष्ट पूजा करनी चाहिए। मुनियों को दान देना चाहिए एवं यथाशक्ति संघपूजा करनी चाहिए।
• इन दोनों तपों की आवश्यक आराधना जैसे-साथिया, खमासमण, माला आदि अग्रांकित अष्टकर्मसूदन-तप के अनुसार करें। 30. अष्टकर्मसूदन तप
प्रत्येक संसारी आत्मा ज्ञानावरणी आदि अष्ट कर्मों से आबद्ध है। इन कर्मों के प्रभाव से ही यह जीव जन्म-मरण रूप संसार अटवी में परिभ्रमण करता है
और नानाविध कष्टों को भोगता है। उन दुष्कर्मों को निरस्त करने के लिए ही इस तप का विधान किया गया है। यदि इस तप का यथाविधि परिपालन किया जाये तो इससे अष्ट कर्मों का क्षय होता है। सूदन का अर्थ है नाश करना। स्वरूपतः यह तप निकाचित कर्मों को मन्द एवं क्षीण करने के उद्देश्य से किया जाता है। यह साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए अवश्यकरणीय तप है। विधि
प्रत्याख्यानान्यष्टौ प्रत्येकं, कर्मणां विघाताय । इति कर्मसूदनतपः, पूर्ण स्याधुगरसमिताहैः ।।