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60... सज्जन तप प्रवेशिका
26. कषायजय तप
कषाय शब्द 'कष्' धातु से बना है । कष् का अर्थ है खींचना, बिगाड़ देना। जीव के शुद्ध स्वरूप को जो कलुषित करे उसे कषाय कहते हैं। कष् का दूसरा अर्थ है संसार, जिससे जन्म-मरण रूपी संसार की वृद्धि हो वह कषाय है।
कषाय चार प्रकार के कहे गये हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन ये चार-चार भेद करने से 16 भेद होते हैं। अनन्तानुबन्धी तीव्र कषाय है, अप्रत्याख्यानादि कषाय उत्तरोत्तर मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते हैं। इन चारों कषायों पर विजय पाने के उद्देश्य से यह तप किया जाता है। इस तप के प्रभाव से सर्व कषायों का नाश होता है। यह तप साधु एवं श्रावक दोनों के करने योग्य आगाढ़ तप है। इस तप की चर्चा कई ग्रन्थों में की गयी है जो सामान्य रूप से इस प्रकार है
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विधि
जय
निर्विकृति, सजलानशने तथा । एकस्मिन्कषायेऽन्येष्वपीदृशं ।। आचारदिनकर, पृ. 337
इस तप में पहले दिन एकासना, दूसरे दिन नीवि, तीसरे दिन आयंबिल और चौथे दिन उपवास - इस प्रकार एक कषाय को जीतने के लिए चार दिन की एक ओली होती है। शेष तीन कषायों को जीतने के लिए भी इसी प्रकार तीन ओली होती है। इस प्रकार 4x4 = 16 दिन में यह तप पूर्ण होता है । पंचाशक प्रकरण, प्रवचनसारोद्धार, तिलकाचार्य सामाचारी प्रभृति ग्रन्थों में कषायजय की यही विधि बतलायी गयी है ।
एकभक्तं
कषाय
उद्यापन
इस तप के सम्पन्न होने पर जिनेश्वर प्रतिमा के आगे सर्व जाति के फल तथा षट् विकृतियों से युक्त पकवान सोलह-सोलह की संख्या में चढ़ाएँ । मुनियों को दान देवें तथा संघ - साधर्मी की यथाशक्ति भक्ति करें।
• प्रचलित परम्परा के अनुसार इन तप दिनों को सफल बनाने हेतु प्रतिदिन निम्न आराधनाएँ अवश्य करें -