Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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[ स्तोत्र साहित्य ३८३७. क्षेत्र मावली ) पत्र सं० ३। भा० १०x४ इंच। भाषा संस्कृत । विषय-स्तोत्र। र० काल xलेकाल पूर्ण 1 के सं० २४४ । म भण्डार ।
३८३८' गीतप्रबन्ध......'' पत्र सं० २ । मा० १०:४४१ च । भाषा-संस्कत । विषय-स्तोत्र | र. काल X। ले. काल ४ । पूर्ण । वै० से० १२४ 1 के भण्डार ।
विशेष-हिन्दी में बसन्तराग में एक भजन है।
३८३६. गीत वीतराग-पंडिताचार्य अभिनवचारूकीर्ति । पत्र सं० २६ । मा० १०:४५ इञ्च । भाषा संस्कृत | विषम-स्तोत्र 1 २.० काल - । ले. काल सं० १८६ ज्येष्ठ बुदी ७ । पूर्ण | 2० ० २७२ अ
भण्डार।
विशेष---जयपुर नगर में श्री चुनीमाल नै प्रतिलिपि की थी।
गीत वीतराग संस्कृत भाषा की रचना है जिसमें २४ प्रबंधों में भिन्न भिन्न राग रागनियों में भगवान प्राविनाथ का पौराणिक माझ्यान वर्णित हैं। ग्रन्श्रकार की पंडिताचार्य उपाधि से ऐसा प्रकट होता है कि वे अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे । ग्रन्थ का निर्माण कब हश्रा यह रचना से ज्ञात नहीं होता किन्तु वह समय निश्चय ही संवत् १८८६ से पूर्व है क्योंकि ज्येष्ठ बुदी अमावस्या सं० :८८६ को जयपुरस्थ लश्कर के मन्दिर के पास रहने वाले श्री मुन्नीलालजी साह ने इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि को है प्रति सुंदर अक्षरों में लिखी हुई है तथा शुद्ध है । ग्रन्थकार ने व को निम्न रागों तथा तालों में संस्कृत गीतों में गया है
राग रागनी- मालव, गुर्जरी, वसंत, रामकली, काल्हत कर्णटक, देशासिराग, देशवराटी, गृणाकरी, मालवगौड,
गुर्जराग, भैरवी, विराडी, विभास, कानरो।
ताल--- रूपक, एकताल, प्रतिमण्ड, परिमण्ड, तितालो, अठताल ।
गीतों में स्थायी, अन्तरा, संचारी तथा ग्राभोग ये चारों हो चरण हैं इस सबसे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार
संस्कृत भाषा के विद्वान होने के साथ ही साथ अच्छे संगीता भी थे।
३८४०. प्रति सं० २। पत्र सं. ३२ | ले कान मं० १९३४ ज्येष्ठ सुरी छ । वे० सं० १२५ । क भण्डार।
विशेष-संघपति अमरचन्द्र के सेवक माणिक्यचन्द्र ने सुरंगपसन की यात्रा के अवसर पर प्रानन्ददाम के वचनानुसार सं० १९८४ वाली प्रति ले प्रतिलिपि की थी।
इसी भण्डार में एक प्रति ( ० सं० १२६ ) और है। ३८४१. प्रति सं०३। पत्र सं०१४ | ले० काल ४ | वे. सं० ४२1ख भण्डार !