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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 29 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
__ "उपदेशदाता आचार्य के गुण" मुख्योपचार विवरण-निरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधा व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् 4
अन्वयार्थ : मुख्योपचारविवरण निरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः = मुख्य और गौण कथन की विवक्षा से शिष्यों के गहरे मिथ्या-ज्ञान को दूर करने वाले 'महापुरुष' व्यवहारनिश्चयज्ञाः = व्यवहार-नय व निश्चय-नय को जानने वाले ऐसे आचार्य जगति = जगत में तीर्थम प्रवर्तयन्ते =धर्मतीर्थ को फैलाते हैं
भव्य बंधुओ! अंतिम तीर्थेश वर्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं भगवान् जिनेन्द्र के शासन में अनेकानेक श्रुतधारक आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा के द्वारा मिथ्यामार्ग का विच्छेद कर, सम्यक् बोध के दिव्य प्रकाश से जन-जन के मिथ्यात्व-तिमिर का नाश कर उनके मोक्षमार्ग को प्रशस्त कियां उन्हीं आचार्यों की श्रेणी में विराजे परमवंदनीय, समयसार के सार को उद्घाटित करनेवाले, अपूर्व आत्मविद्या के धनी आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने अपनी सम्पूर्ण प्रज्ञा का प्रयोग श्रुताराधना में लगाकर तीर्थंकर-देशना के रहस्यों को उद्घाटित कियां आचार्य कुंदकुंद भगवन् के समयसार को प्रकाश में लाने वाले सर्वप्रथम आचार्य अमृतचंद्र स्वामी हुएं जिनकी आत्मख्याति टीका एवं कलश ऐसे लगते है मानो महान समयसार-प्रासाद के ऊपर आत्मख्याति काव्य-कलशों के साथ विशाल कलशारोहण ही किया गया हों आचार्यश्री ने टीका-ग्रंथ के अतिरिक्त मौलिक-ग्रंथों का भी सृजन कियां उन्हीं महान कृतियों में यह ग्रंथराज पुरुषार्थ सिद्धयुपाय भी हैं इस ग्रंथ में श्रावक के बारह व्रतों का एवं संक्षेप में यति-धर्म का भी कथन हैं इस ग्रंथ की यह भी विशेषता है कि अहिंसा का जितना विशद् वर्णन इस ग्रंथ में विभिन्न पक्षों से तर्क सहित समझाया गया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होतां प्रारंभ में तो लगता ही नहीं है कि यह कोई श्रावकाचार ग्रंथ चल रहा हैं न्याय, अध्यात्म, सिद्वांत, चरणानुयोग को आचार्यश्री ने एकसाथ सजाकर अपूर्व मणिमय ग्रंथराज का सृजन किया हैं
इस चतुर्थ कारिका (श्लोक) में जगत में तीर्थ का प्रवर्तन कैसे हो, इस बात को समझाया गया हैं तत्त्व को समझे बिना दूसरे के लिए सम्यक् बोध प्रदान नहीं किया जा सकतां श्रुत देने के पूर्व श्रुत की निर्मल आराधना अनिवार्य हैं संशयादि दोषों से रहित ज्ञान ही सम्यज्ञान है, किंतु लोकपूजा की दृष्टि से की गई
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