Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यास्रव कथाकोश
है और यह भी जाना जा सकता है कि यहाँ जो जोड़-तोड़ व परिवर्तन किये गये हैं उनका यथार्थ उद्देश्य क्या है ।
(८) पुण्यास्रवकी भाषा
साहित्यिक संस्कृत भाषाके जिस लोक प्रचलित रूपको अनेक जैन लेखकोंने, विशेषतः पश्चिम भारत में, अपनाया, उसे जैन संस्कृत नाम दिया गया है। इस नामकी क्या सार्थकता है व उसकी भाषा- शास्त्रीय पार्श्वभूमि क्या है, इसका विचार बृहत्कथाकोशकी प्रस्तावना ( पृ० ९४ आदि ) में किया जा चुका है । अभी-अभी डा० बी० जे० सांदेशरा और श्री जे० पी० ठाकरने इस विषयके समस्त अध्ययनका विधिवत् उपसंहार किया है । इसके लिए उन्होंने सामग्री ली है मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि ( सन् १३०५ ), राजशेखर सूरि कृत प्रबन्धकोश ( सन् १३४९), और पुरातन प्रबन्ध संग्रह से । इस आधार पर यह कहना असत्य होगा कि जैन लेखकों द्वारा प्रयुक्त संस्कृतकी सामान्य संज्ञा 'जैन संस्कृत' है, क्योंकि समन्तभद्र, पूज्यपाद, हरिभद्र आदि अनेक ऐसे जैन लेखक हुए हैं जिनकी संस्कृत भाषा पूर्णतः शास्त्रीय है | अतः 'जैन संस्कृत' से अभिप्राय केवल कुछ सीमित लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषासे ही हो सकता है । इन लेखकों को अपनी बात सुशिक्षित वर्ग तक ही सीमित न रखकर अधिक विस्तृत जन-समुदाय तक पहुँचाना था, और उनकी रचनाओं के प्रत्यक्ष व परोक्ष आधार बहुधा प्राकृत भाषाओंके ग्रन्थ थे । अतः उनकी संस्कृत लौकिक बोलियोंसे प्रभावित हो, यह स्वाभाविक है । दूसरी बात यह भी है कि ये लेखक लोक प्रचलित शैली में लिखना चाहते थे, अतः उन्होंने संस्कृत व्याकरणके कठोर नियमोंका पालन करना आवश्यक नहीं समझा । उनकी सरल संस्कृत तत्कालिक आधुनिक बोलियोंसे प्रभावित हुई । उसमें देशी शब्दों का भी समावेश हुआ, एवं मध्यकालीन और अर्वाचीन शब्दोंको संस्कृतकी उच्चारण-विधिके अनुरूप बनाकर प्रयोग कर लिया गया । ये प्रायः सभी प्रवृत्तियाँ पुण्यास्रवकथाकोश में भी पायी जाती हैं । रामचन्द्र मुमुक्षु प्राकृतके उत्तराधिकारी भी थे, और संभवतः उनपर यत्र-तत्र कन्नड शैलीका भी प्रभाव पड़ा था ।
पुण्यात्रवकथाकोशके पाठान्तरोंसे स्पष्ट है कि बहुधा य और ज, तथा प और ख का परस्पर विनिमय हुआ है । ग्रन्थकार संधिके नियमोंका विकल्पसे ही पालन करते हैं, कठोरता से नहीं । इस विषय में जो पाठान्तर पाये जाते हैं उनसे अनुमान होता है कि प्रतिलेखकोंने भी अपनी स्वच्छन्दता वर्ती है । प्रस्तुत संस्करण में प्राचीन प्रतियोंको मान्यता दी है, और शब्दरूपों को बलपूर्वक व्याकरणके चौखटेमें बैठानेका प्रयत्न नहीं किया गया । यहाँ शब्द - सौष्ठवको अपेक्षा ग्रन्थकारका ध्यान कथा और उसके सारांशकी ओर अधिक रहा है । व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध प्रयोगोंके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार है
भूयोक्तवान् ( ७५, १४ ) में संधि अशुद्ध है । दृशद् बद्धः, वृत्तान्तम् ( १५६-७ ), कैवल्यो ( २७०१३) शत और सहस्र ( २७७, २७८, ३०२ आदि ) में लिंग प्रयोग ठीक नहीं है । सोमशर्मन्के स्त्रीलिंग रूप सोमशर्मा ( ५१, १२ ) और सोमशर्मणी ( ५२-१ ) पाये जाते हैं । गच्छन्ती के लिए गच्छती (९४-९) प्रयुक्त हुआ हैं । कारक रचनाकी दृष्टिसे पतेः ( १५४-२, १९३-१४ आदि ), राजस्य ( १९६-५ ), मे ( ३१९-१३ व इमा ( १६५ - ५ ) विचारणीय हैं । भूतकालसंबन्धी तीन लकारोंके ही है, किन्तु उक्तवान् के लिए उक्तः ( १४०-१२ ) व आज्ञापितौ के लिए आज्ञातो के लिए आक्रोशते ( १८१-१० ) तथा तिरोभूत्वा ( १०० १० ), नमस्कृत्वा ( ( २९१-३ ) ध्यान देने योग्य हैं ।
प्रयोग में तो भेद नहीं
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कारक विभक्तियोंके अनियमित प्रयोग हैं - उपवासो ( १३०-१२ ) हस्त संज्ञाम् ( १४३-४ ), मदनमञ्जूषया ( १४-७ ), सर्वेभ्यः ( १४६-९), सीताया: ( १०२-६ ), वज्रजंघस्य ( १४७ - ८ ) शाखायाम् ( १००-१० ), गंगायाम् ( ५३-५ ) मदहस्ते ( ९१-४ ), तथा भक्षणे ( १३६-८ ), दिव्यभोगान् ( १२४
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१४७-७ ), आक्रोश्यते१०२-६ ), संस्थित्वा
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