Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
१३
हरिषेण कृत बृहत्कथाकोशसे मेल रखनेवाली अनेक कथाओं का उल्लेख ऊपर आ चुका है। कुछ और कथाओंका मेल इस प्रकार है - पुण्य० कथा
बृ० क० कोश
५६
१६
१२७ ३२-३३वीं कथाओंके नायक वे ही हैं जिनके नाम रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ३-१८ में आये हैं । इनकी कथाएँ प्रायः जैसीकी तैसी प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत टोकामें आयी हैं। अनुमानत: टीकाकारने ही उन्हें कथाकोशसे लो होंगो, और उन्होंने उन्हें अधिक सौष्ठवसे भी प्रस्तुत किया है। किन्तु यह भी सम्भव है कि उक्त दोनों ग्रन्थकारोंने उन्हें स्वतन्त्रतासे किसी अन्य ही प्राचीन कथाकोशसे ली हों।
इस प्रकार जहाँ तक पता चलता है, प्रस्तुत कथाकोशके स्रोत, उसमें उल्लिखित ग्रन्थोंके अतिरिक्त रविषेण कृत पद्मचरित, जिनसेन कृत हरिवंश पुराण, जिनसेन-गुणभद्र कृत महापुराण और सम्भवतः हरिषेण कृत बृहत्कथाकोश रहे हैं। इसके उपाख्यान बहुधा राम, कृष्ण आदि शलाका पुरुषों सम्बन्धी कथाचक्रोंसे, अथवा भगवती आराधनामें निर्दिष्ट धार्मिक पुरुषोंसे सम्बद्ध पाये जाते हैं, जिनके विषयमें प्राचीन टीकाओंके आधारसे सम्भवतः अनेक कथाकोश रचे गये हैं। सम्भव है धीरे-धीरे प्रस्तुत कथाओंके और भी आधारोंका पता चले जिनसे अनेक प्राप्य कथाकोशोंके बीच रामचन्द्र मुमुक्षुकी प्रस्तुत रचनाके स्थानका ठीक-ठीक मूल्यांकन किया जा सके।
(७) पुण्यास्रव : उसके सांस्कृतिक आदि तत्व जैसा कि बहुधा पाया जाता है, पुण्यास्रवकी कथाओंमें जैन धर्म और सिद्धान्त सम्बन्धी बहुत-सा विवरण आया है। पात्रोंके भूत और भावी जन्मान्तरोंका वर्णन करने में केवल ज्ञानी मुनियोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है। जातिस्मरणको घटना बहुलतासे आयी है । जैन पारिभाषिक शब्द सर्वत्र बिखरे हए हैं। विद्याधरों
और उनकी चमत्कारी विद्याओंके उल्लेख बारंबार आते हैं। छोटे-छोटे लौकिक उपाख्यान यत्र-तत्र समाविष्ट किये गये हैं, जैसे पृ० ५३ आदिपर । व्रतोंमें पुष्पांजलि (४) और रोहिणी (३७) व्रत प्रमुखतासे आये हैं । सोलह स्वप्नोंका पूरा विवरण मिलता है (पृ० २३२) और उसी प्रकार कालके छह युगोंका (पृ० २५७) जो सम्भवतः हरिवंश पुराणपर आधारित है। समवसरणका वर्णन भी है (पृ० २७२ )। श्रेणिक, चन्द्रगुप्त, अशोक, बिन्दुसार आदि ऐतिहासिक सम्राटों एवं भद्रबाहु, चाणक्य आदि महापुरुषों, तथा तत्कालीन संघ-भेदोंके उल्लेख नाना सन्दर्भोमें आये हैं (पृष्ठ २१९, २२७; २२९ आदि)।
जैन कथा साहित्यको जटिल शृंखलामें पुण्यास्रव कथाकोशकी कड़ी अपना विशेष महत्त्व रखती है । रचना भले ही पर्वकी हो या पश्चातकी, किन्तु ये कथाएं अति प्राचीन प्राकृत, संस्कृत और कन्नडके मल स्रोतोंसे प्रवाहित हैं. इसमें सन्देह नहीं। कथाकोश अनेक प्रकाशित हो चके हैं, किन्तु अनेकों अभी भी लिखित रूपमें अप्रकाशित पड़े हैं। यह बहुत आवश्यक है कि एक-एक कथाको लेकर आदिसे अन्त तक उसके विकासका अध्ययन किया जाय। इस कार्यमें जैन साहित्यको दृष्टिमें रखते हुए बाह्य प्रभावकी उपेक्षा नहीं की जाना चाहिए । अन्ततः तो इन कथाओंका भारतीय साहित्यकी धारामें ही अध्ययन करना योग्य है। हो सकता है कि इन कथाओंमें कहीं न केवल भारतीय, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व विश्वव्यापी कथा-तत्वोंका पता चल जाय। इसी प्रकारके अध्ययनसे इन कथाओंके क्रम-विकासका ठीक-ठोक परिज्ञान हो सकता
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