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विभक्त है-आदिपुराण और उत्तरपुराण । आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का वर्णन है और उत्तरपुराण में शेष 23 तीर्थंकरों का।
महापुराण का अध्ययन करने पर कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर चिन्तन करना आवश्यक है। ये चिन्तन आपको वैदिक परम्परा से जैन परम्परा का अन्तर और महत्त्व बता सकता है। 1. सबसे पहली बात यह है कि लोक में ब्रह्मा नाम से प्रसिद्ध जो देव हैं, वह
जैन परम्परानुसार भगवान वृषभदेव ही हैं, और कोई नहीं हैं। स्पष्टीकरण
के लिए आदिपुराण ग्रन्थ की प्रस्तावना पृष्ठ 15 देखें। 2. राजा वृषभदेव ने ही अपने राज्य में वर्ण-व्यवस्था की थी। क्षत्रिय, वैश्य
और शूद्र ये तीन वर्ण गुणों के अनुसार और आजीविका के आधार पर स्थापित किए थे, जन्म के आधार पर नहीं। यह राज्य-व्यवस्था थी, धर्मव्यवस्था नहीं थी। 3. भरत चक्रवर्ती ने राज्य-व्यवस्था में संशोधन किया और जो धर्म और
अणुव्रतधारी थे, उनका सम्मान करने के विचार से 'ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना की थी। 4. भरत चक्रवर्ती ने भव्य और सन्मार्गी अजैन व्यक्ति को भी जैन दीक्षा देने
का उपदेश दिया था। मिथ्यात्व से दूषित व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के लिए दीक्षान्वय क्रियाओं का उपदेश दिया था। 5. समाज व्यवस्था को दृढ़ बनाने के लिए गर्भ से लेकर सभी क्रियाओं का विस्तार से उपदेश दिया था। ये सारी व्यवस्था जाति और जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म और सन्मार्ग के लिए की गयी थी। अतः सभी
श्रावकों को एक बार आदिपुराण का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। 6. भगवान वृषभदेव ने स्त्री-शिक्षा और स्त्री-सम्मान आदि विषयों पर विशेष
जोर दिया था।
इन ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान वृषभदेव और भरत चक्रवर्ती ने अहिंसा आदि व्रतों और सदाचार की मुख्यता पर विशेष जोर दिया था। कोई भी व्यक्ति इन्हीं के कारण उच्च और श्रेष्ठ कहा जाता था।
जाति नामकर्म के उदय से मनुष्यजाति एक ही है, आजीविका के भेद से ही उसके ब्राह्मण आदि चार भेद प्राप्त होते हैं-भरत-चक्रवर्ती के ये विचार वर्तमान समय में चिन्तनीय और प्रासंगिक हैं। इन पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
महापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण) :: 19