________________
पाँच भावों का वर्णन है तथा इनके भेदों का वर्णन करते हुए उनके स्वसंयोगी (अपने आप मिलना) और परसंयोगी (दूसरों द्वारा मिलाना) भंगों का गुणस्थानों में वर्णन किया है। इसके पश्चात् इस अधिकार में 363 मिथ्यावादियों के मतों का भी निर्देश किया है ।
8. त्रिकरणचूलिका अधिकार
इस अधिकार में अधः करण, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण - इन तीन करणों का स्वरूप कहा गया है । षट्खण्डागम के जीवकाण्ड के प्रारम्भ में भी इन तीनों का स्वरूप गुणस्थानों के प्रसंग से कहा है । इन तीनों का स्वरूप बतलानेवाली गाथाएँ भी जीवकाण्ड की ही हैं । किन्तु यहाँ ग्रन्थकार ने अपने तरीके से इन करणों को समझाया है ।
9. कर्मस्थिति बन्ध अधिकार
कर्म की क्या स्थिति होती है, इसकी रचना कैसे होती है, यह समझाते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि
हम प्रतिदिन प्रतिसमय जो कर्म करते हैं, वे बँधते समय आठ कर्मों में विभाजित हो जाते हैं और उदयकाल आने पर क्रमशः निर्जीर्ण होकर खिरने लगते हैं । कर्मनिषेकों की रचना उसकी स्थिति के अनुसार आबाधाकाल को छोड़कर हो जाती है। आबाधाकाल का अर्थ है- बँधने के पश्चात् कर्म तत्काल फल नहीं देता। कुछ समय बाद फल देता है उस समय को आबाध काल कहते हैं । यह आबाधा काल कर्म की स्थिति के अनुसार होता है । जैसे - एक कोटा - कोटि सागर की स्थिति में एक सौ वर्ष आबाधा काल होता है। सरल रूप में देखें तोयदि किसी कर्म की स्थिति एक कोटा - कोटि सागर बँधी हो तो वह कर्म सौ वर्ष के बाद अपना फल देना प्रारम्भ करता है और सौ वर्ष कम एक कोटा - कोटि सागर काल तक वह अपना फल देता रहता है ।
1
-
इस अधिकार में कर्मस्थिति और बन्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। अधिकार के अन्त में ग्रन्थकार ने केवल चामुण्डराय के क्रिया-कलापों का ही वर्णन किया है, क्योंकि यह ग्रन्थ उनके लिए ही लिखा गया था । ग्रन्थकार ने अपने सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है ।
वास्तव में यह ग्रन्थ कर्मसिद्धान्त का सिरमौर जैसा है। इसमें पूर्वरचित कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्थों का सार आया है। इसके स्वाध्याय द्वारा कर्म साहित्य का ज्ञान सम्यक् प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है।
गोम्मटसार :: 67