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5. कालप्ररूपणा इस प्ररूपणा में 342 सूत्र हैं। इसमें एक जीव और नाना जीवों के एक गुणस्थान
और मार्गणा में रहने की जघन्य उत्कृष्ट मर्यादा की कालावधि का निर्देश किया है।
6. अन्तर-प्ररूपणा इसमें 397 सूत्र हैं। अन्तर का अर्थ है-विरह, व्युच्छेद या अभाव। किसी गुणस्थानवाले जीव का उस गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थान में चले जाने पर पुनः उसी गुणस्थान की प्राप्ति हो जाने के पूर्व तक का काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-काल को जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकाल को उत्कृष्ट अन्तर कहा है। इस प्रकार के अन्तरकाल का वर्णन करनेवाली यह अन्तर-प्ररूपणा है।
7. भाव-प्ररूपणा इसमें 93 सूत्र हैं। इसमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणा स्थानों में होनेवाले भावों का निरूपण किया गया है। कर्मों के उदय, उपशम (दब जाना), क्षय (नष्ट हो जाना) और क्षयोपशम (नष्ट होकर फिर उदय होना) आदि निमित्त से जीव के उत्पन्न होनेवाले परिणाम-विशेष को भाव कहते हैं।
8. अल्पबहुत्व प्ररूपणा इसमें 382 सूत्र हैं। नाना गुणस्थान और मार्गणास्थानवी जीवों की संख्या के हीनाधिकत्व (कम-ज्यादा होना) का वर्णन इस प्ररूपणा में है। अर्थात् गुणस्थान और मार्गणा में जीवों की संख्या कम या ज्यादा होती है, यहाँ इसका वर्णन किया
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओं के अतिरिक्त जीवस्थान की नौ चलिकाएँ हैं। इस प्रथम खंड में कुल 2375 सूत्र हैं और यह खंड आठ प्ररूपणाओं (प्रकारों) और नौ चूलिकाओं में विभक्त है।
इन चूलिकाओं में कुछ बहुत सुन्दर और विशेष बातों का वर्णन है। जैसे1. चारों गति (देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी) के जीव मरकर किस-किस
गति में जा सकते हैं और किस-किस गति से किस गति में आ-जा सकते
82 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय