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हैं - इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
2. देव मरकर पुनः देवगति प्राप्त नहीं कर सकता। वह नारकी भी नहीं हो सकता । नारकी जीव मरकर पुन: नरक में नहीं जाता है, न देव गति में जाता है । इन दोनों गतियों के जीव मनुष्य या तिर्यंच गति ही प्राप्त करते हैं । 3. मनुष्य और तिर्यंच गति के जीव चारों ही गतियों में जन्म ग्रहण कर सकते हैं ।
4. नरक और देवगति से आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं । मनुष्य और तिर्यंच गति के जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते।
5. चक्रवर्ती, नारायण - प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देव गति से आये हुए जीव होते हैं। शेष गतियों से आये हुए जीव चक्रवर्ती आदि नहीं हो सकते । 6. चक्रवर्ती मरकर स्वर्ग और नरक दोनों में जा सकते हैं। वह कर्म नष्ट कर मोक्ष भी जा सकते हैं ।
7. नारायण और प्रतिनारायण मरकर नियम से नरक जाते हैं ।
8. सातवें नरक का निकला जीव तिर्यंच ही हो सकता है, मनुष्य नहीं हो
सकता ।
इस प्रकार इस अधिकार में सातों नरक से निकले हुए जीव की गति, स्थिति विस्तार से बताई है । मनुष्य गति, देवगति और तिर्यंचगति के जीवों की स्थिति का वर्णन बहुत विस्तार से बताया गया है।
वास्तव में यह ग्रन्थ और इसका प्रथम खंड (जीवस्थान) वर्तमान समय के लिए बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है ।
दूसरा खंड : खुद्दाबन्ध (क्षुद्रकबन्ध )
क्षुद्रक अर्थात् छोटा बन्ध अर्थात् खण्ड या भाग । खुद्दाबन्ध या क्षुद्रकबन्ध कहने का कारण यह है कि महाबन्ध की अपेक्षा यह बन्ध प्रकरण छोटा है। इसमें बताया है कि मार्गणा स्थानों के अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक है। कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से यह द्वितीय खंड बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। इसका वर्णन ग्यारह अनुयोगों (अंगों या भाग) द्वारा किया गया है । इन ग्यारह अनुयोगों में पूर्व प्रास्ताविक रूप में बन्धकों के सत्त्व (स्थिति) का वर्णन किया गया है और अन्त में ग्यारह अनुयोगद्वारों की चूलिका के रूप में दो अधिकार दिए गये हैं । इस प्रकार इस खंड में 13 अधिकार हैं और 582 सूत्र हैं। इनमें कुछ विशेष बातों पर चर्चा की गयी है ।
षट्खण्डागम :: 83