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सम्यग्दर्शन के अंग सम्यग्दर्शन के आठ अंग होते हैं___1. सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की श्रद्धा रखना, उनमें शंका नहीं करना निःशंकित अंग है।
2. धर्म के फल में और इन्द्रियों के विषयों में सुख की इच्छा नहीं रखना, निःकांक्षित अंग है।
3. वीतरागी गुरु के रोगादि से मलिन शरीर को देखकर अनादर भाव न रखकर उनके गुणों से प्रीति रखना निर्विचिकित्सा अंग है।
____4. मिथ्यादृष्टि देवादि की मन, वचन, काय से प्रशंसा नहीं करना अमूढ़दृष्टि अंग है। ___5. ज्ञानी पुरुषों, साधर्मी जीवों के दोषों को छिपाने का नाम उपगूहन अंग
6. धर्म से विचलित किसी धर्मात्मा को उपदेश देकर फिर से धर्म में स्थिर करना स्थितीकरण है।
7. वीतरागी गुरु के प्रति आदर भाव रखना और उनकी सेवा करना वात्सल्य अंग है।
8. जिन धर्म के महत्त्व को प्रकाशित करना प्रभावना अंग है।
सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले श्रावक तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और सम्यग्दर्शन के आठ दोषों का पूर्ण त्याग कर देता है। इसलिए वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। तीन मूढ़ता सम्यग्दृष्टि जीव इन तीन मूढ़ताओं से सदा दूर रहता है
1. अपनी इच्छा पूरी करने के लिए कुदेवों की सेवा करना देवमूढ़ता है। 2. कुधर्म का सेवन करनेवाले गुरु के वचनों को मानना गुरुमूढ़ता है।
3. नदी, समुद्र में स्नान करने, रेत का ढेर लगाने आदि में धर्म मानना एवं पर्वत एवं अग्नि में गिर जाने में धर्म मानना लोकमूढ़ता है।
आठ मद मद अर्थात् घमण्ड। श्रावकों को पूजा, उच्च कुल, उच्च जाति, बल, ऋद्धि, तप
रत्नकरण्ड श्रावकाचार:: 109