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गृहस्थी बसाना या गृहस्थ में रहना खून से स्नान करने के समान है, क्योंकि उसमें हम बहुत हिंसा करते हैं। अत: इन हिंसादि दोषों को कम करने के लिए पापों को कम करने के लिए हमें दान देना चाहिए। दान देने से पाप कम होते हैं।
आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान और आवासदान-ये चार प्रकार के दान हैं। हमें यथाशक्ति दान अवश्य करना चाहिए। अतिथि-संविभाग वैयावृत्य को ही अतिथि-संविभाग व्रत भी कहते हैं। वैयावृत्य में ही जिनेन्द्र देव की पूजा का उपदेश भी दिया है। गृहस्थ को नित्य ही जिनेन्द्र पूजन करना चाहिए। क्योंकि जिनेन्द्र-पूजा सब दुखों को हरनेवाली है। जिनेन्द्र पूजा कामधेनु के समान सुख देनेवाली है। जिनपूजा के प्रभाव से मेंढक भी देव बन गया है। ___ जैन मुनि को 'अतिथि' शब्द देना जैनदर्शन की महत्त्वपूर्ण देन है। जिसके आने की कोई तिथि न हो वही अतिथि है। जिसको निमन्त्रण नहीं दिया जाता है, जिसका आना पूर्व निर्धारित न हो, वही अतिथि है। यही जैन मुनि की विशेषता है। अतः जैन मुनि की सेवा करना और आहार देना वैयावृत्य है। वैयावृत्य के अतिचार 1. सचित्त और अप्रासुक वस्तु आहार में देना। 2. अप्रासुक सचित्त वस्तु हरे पत्रादिक पर रखकर आहार में देना। 3. दान देने में अनादर का भाव रखना। 4. दान विधि में भूल हो जाना। 5. अन्य दाताओं से ईर्ष्या रखना। __ इस प्रकार श्रावक को चार शिक्षाव्रतों का पालन करना चाहिए और इन व्रतों में कोई दोष नहीं लगाना चाहिए। 6. सल्लेखना अधिकार 'सल्लेखना' शब्द जैनदर्शन का विशेष पारिभाषिक शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है। सल्लेखना = सत् + लेखना, जिसका अर्थ होता है-सम्यक् प्रकार से काय एवं कषायों को कृश (कम) करना।
वृद्ध अवस्था आ जाने पर, कोई असाध्य रोग हो जाने पर या धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे सल्लेखना कहते हैं।
120 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय