________________
छठा अध्याय (112 श्लोक) छठे अध्याय में सम्यक् तप की आराधना की है। इसमें 112 श्लोक हैं। इसमें दस धर्म, बारह भावना और बाईस परीषहों का वर्णन किया है। सातवाँ अध्याय ( 104 श्लोक) सातवें अध्याय में 104 श्लोकों द्वारा तप की व्युत्पत्ति, तप का लक्षण और तप के भेद बताए हैं। छह बाह्य तप और छह अभ्यन्तर तप का विस्तृत वर्णन इस अध्याय में मिलता है।
आठवाँ अध्याय ( 134 श्लोक) आठवें अध्याय में साधु के छह आवश्यकों (षडावश्यक) का वर्णन किया है। इसमें 134 श्लोक हैं। ___ साधु के अनिवार्य षट्कर्मों को षडावश्यक कहते हैं। इन्द्रियों के वशीभूत जो नहीं है उसे अवश्य कहते हैं और उसके कार्य को आवश्यक है। साधु की दिन-रात की चर्या का वर्णन इसमें है। सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन छह आवश्यकों का विस्तृत वर्णन इस अध्याय में है। वन्दना के बत्तीस दोषों तथा कायोत्सर्ग के बत्तीस दोषों का वर्णन भी किया है। साधु के लिए यह अधिकार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
नौवाँ अध्याय ( 100 श्लोक ) नवम अध्याय में नित्य-नैमित्तिक क्रिया का वर्णन है। इसमें 100 श्लोक हैं। प्रथम चवालीस श्लोकों में नित्यक्रिया के प्रयोग की विधि बतलाई है। जैसे-स्वाध्याय कब किस प्रकार प्रारम्भ करना चाहिए और कब किस प्रकार समाप्त करना चाहिए। प्रातःकालीन देववन्दना कैसे करनी चाहिए। णमोकार मन्त्र के जाप की विधि और भेद भी बताए हैं।
इस अध्याय का छब्बीसवाँ श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसमें बताया है कि जिनदेव तो वीतरागी हैं, न निन्दा से नाराज होते हैं और न स्तुति से प्रसन्न होते हैं, तब इनकी स्तुति से फल प्राप्ति कैसे होती है-इसी का समाधान करते हुए कहा है कि भगवान के गुणों में अनुराग करने से जो शुभ भाव होते हैं, शुभ भाव होने से शुभ फल मिलता है। इसलिए वीतराग की स्तुति इष्टसिद्धिकारक अर्थात् इच्छित
152 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय