Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 269
________________ और समताभाव का परस्पर सम्बन्ध है । समताभाव के बिना ध्यान सम्भव नहीं है, ध्यान के बिना समताभाव सम्भव नहीं है । 26. रौद्रध्यान इसमें 44 पद्य हैं और रौद्रध्यान का निरूपण किया गया है। हिंसा में आनन्द मानने से, असत्य भाषण में आनन्द मानने से, चोरी के अभिप्राय से तथा विषयों के संरक्षण से प्राणियों के निरन्तर चार प्रकार का रौद्रध्यान उत्पन्न होता है। 27. ध्यान - विरुद्ध स्थान इस अध्याय में 34 पद्यों में ध्यान के विरुद्धस्थान का चित्रण किया गया है। ध्यान को बढ़ानेवाली मैत्री, करुणा, प्रमोद और मध्यस्थ- इन चारों भावनाओं का निरूपण किया है तथा ध्यान में बाधा डालनेवाले स्थानों का भी वर्णन किया है। 28. ध्यान योग्य स्थान इस अध्याय में 40 पद्यों में आसन का विधान किया है। ध्यान की सिद्धि किसी सिद्धक्षेत्र में, उत्तम तीर्थ में और अतिशय क्षेत्र में होती है। ध्याता (योगी) को ध्यान के लिए किसी ऐसे पवित्र स्थान को देखना चाहिए जहाँ से कोई भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त हुआ हो। ध्यान के योग्य आसनों में पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंक आसन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन एवं कायोत्सर्ग आसन बताए हैं । 29. प्राणायाम इस अध्याय में 102 पद्यों में प्राणायाम का वर्णन है। प्राणायाम से जगत के शुभाशुभ और भूत-भविष्य का ज्ञान किया जाता है। मन को वशीभूत करने से विषय - वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति बढ़ जाती है। जिससे समस्त वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। श्वास और प्रश्वासरूप वायु की गति को रोकने का नाम प्राणायाम है। प्राणायाम को पूर्व आचार्यों ने लक्षण की विशेषता से तीन प्रकार का माना है । जिन मुनिराज ने इन्द्रियों को जीत लिया है, वे मुनिराज प्राणायाम से सैकड़ों भवों का संचित पाप दो मुहूर्त मात्र में ही नष्ट कर देते हैं। इस अध्याय में प्राणायाम और स्वरविज्ञान का वर्णन अनेक बिन्दुओं के साथ विस्तार से किया है । ज्ञानार्णव :: 267

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284