Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 257
________________ भिन्न जानना अविकृतिकरण है। 4. भावशुद्धि: क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है। 8. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार (गाथा 113-121) इस अधिकार में आत्मध्यान को ही शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त कहा गया है। अनेक कर्मों के क्षय का हेतु और मुनियों द्वारा किया गया तपश्चरण ही प्रायश्चित्त है। ध्यान सर्वोत्कृष्ट तप है, ध्यान को ही शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त कहा गया है । इसके बाद आगे कहते हैं क्षमा धारण करने से क्रोध का प्रायश्चित्त होता है। मार्दव धारण करने से मान का प्रायश्चित्त होता है । आर्जव धारण करने से माया का प्रायश्चित्त होता है । संतोष धारण करने से लोभ का प्रायश्चित्त होता है। इस प्रकार चारों कषायों पर विजय प्राप्त करना ही निश्चय प्रायश्चित्त है। निश्चय प्रायश्चित्त समस्त आचरणों में परम आचरण है । उत्कृष्ट ज्ञान का ही नाम निश्चय प्रायश्चित्त है। 9. परमसमाधि अधिकार ( गाथा 122-133 ) जो वचनोच्चारण की क्रिया त्यागकर वीतराग भाव से अपनी आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि होती है । T जो संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से आत्मा को ध्याता है उसे परमसमाधि प्राप्त होती है । जो साधु वनवास, कायक्लेश रूप अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि कार्य समताभावपूर्वक करते हैं उन्हें ही लाभ प्राप्त होता है। क्योंकि समता से रहित साधु को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। जिसमें सभी स्थावर और त्रस जीवों के प्रति समताभाव हो वही सामायिक है । मन में सभी जीवों के प्रति समताभाव रखना ही स्थायी सामायिक है । इस प्रकार इस अधिकार में परमसमाधि और स्थायी सामायिक का स्वरूप और महत्त्व बताया है । सामायिक के बारे में बाहर की चर्या की नहीं अपितु आन्तरिक सामायिक की बात कही है । इस अधिकार में बहुत ही सुन्दर एवं सरल शब्दों में सामायिक को समझाया है। नियमसार: 255

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