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प्रकट होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक ही हो जाते हैं, तब शुद्ध उपयोग की अवस्था प्राप्त हो जाती है। अर्थात मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाने पर मुनिराज को जो आनन्द प्राप्त होता है, उसका वर्णन अकथनीय है, वह आनन्द इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती को भी प्राप्त नहीं होता।
स्वरूपाचरण चारित्र के प्रकट होने पर शुक्ल ध्यान द्वारा चार घातिया कर्म जलाए जाते हैं, तब मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। केवलज्ञान द्वारा मुनिराज तीनों लोकों के अनन्तानन्त पदार्थों के गुण और पर्यायों को एक साथ जान लेते हैं, अर्थात् सम्पूर्ण विश्व की समस्त क्रियाओं को एक साथ जान लेते हैं। तब वह संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं।
फिर शेष चार अघातिया कर्मों को भी नाश कर सिद्ध हो जाते हैं। तीन लोक के ऊपर सिद्धलोक में पहुँच जाते हैं। सिद्ध वहाँ अनन्तकाल तक रहते हैं, वे संसार के आवागमन से छूट जाते हैं और मोक्ष में स्थिर हो जाते हैं।
इस आनन्दमय सिद्ध अवस्था को पाने का कारण निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इसलिए भव्यजीवों को रोग और बुढ़ापा आने के पहले ही आलस्य छोड़कर आत्मा के कल्याण में लग जाना चाहिए तथा शीघ्र ही रत्नत्रय धर्म को धारण कर लेना चाहिए।
छहढाला :: 147