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2. शरीर द्वारा निन्दनीय कार्य करना या किसी को हानि पहुँचाना। 3. बिना प्रयोजन अधिक बोलना। 4. भोगोपभोग की सामग्री का अधिक संग्रह करना। 5. प्रयोजन का विचार न करके कार्य को अधिक रूप में करना।
इतना उपयोगी, सरल और सूक्ष्म व्रत हम अवश्य धारण कर सकते हैं।
ग. भोगोपभोग-परिमाण व्रत पाँचों इन्द्रियों के कारण जो राग और आसक्ति भाव (अधिक स्नेह) है, उसे कम करने के लिए सीमा बाँधना, साधन सीमित करना, भोगोपभोग परिमाण नाम का व्रत है।
मद्य, मांस, मधु और कन्दमूल आदि का त्याग तो अवश्य करना ही चाहिए। यह जैनत्व धारण करने के लिए परमावश्यक है।
भोग- जो एक बार भोग करने के बाद फिर त्यागने योग्य हो जाता है वह भोग है। जैसे-भोजन, पान आदि।
उपभोग- जो भोगने के बाद फिर भोगने योग्य रहता है वह उपभोग है। यथा-वस्त्र, आभूषण, वाहनादि।
इनका त्याग दो प्रकार से कर सकते हैं-1. नियम द्वारा, 2. यम द्वारा। 1. कुछ महीने, साल या कुछ घण्टों की मर्यादा लेकर व्रत लेना नियम है। 2. जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना यम है।
भोगोपभोग व्रत की आवश्यकता वर्तमान में बहुत अधिक हो गयी है। आज व्यक्ति की इच्छा और लालसा इतनी अधिक बढ़ गयी है कि वह दिन-रात इनके पीछे ही भाग रहा है। एक मकान के बाद दूसरा मकान, एक गाड़ी के बाद दूसरी गाड़ी, कपड़ों का ढेर, उपयोग के साधनों का असीमित प्रयोग ही असन्तुलित जीवन का आधार है। हम व्रत लेकर अपने विषय-भोग को सीमित कर सकते हैं।
1. ऐसा सुन्दर घर बना लो, दो-मंजिला ऑफिस बना लो, दूसरे को धोखा देकर आगे बढ़ जाओ। तुम्हारे साथ उसने ऐसा किया, तुम भी ऐसा करो। आदिआदि... बातें सुनने में आती हैं।
2. हिंसक वस्तुएँ दूसरों को देते हैं, एक दूसरों को नीचा दिखाने में लोग प्रायः साधनों का उपयोग कर रहे हैं। यहाँ तक कि बन्दूक, चाकू और छुरी इनका क्रय-विक्रय का प्रचलन बहुत बढ़ गया है।
3. आज सबसे बड़ी समस्या है, वस्तुओं का सीमित एवं सही तरीके से
रत्नकरण्ड श्रावकाचार :: 115