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खोटे कागज पत्र तैयार करना, नकली नोट, मोहर आदि बनाना और किसी व्यक्ति द्वारा गिरवी रखी हुई सम्पदा को बराबर न देकर कम देना सत्यव्रत
के अतिचार हैं। 3. दूसरों को चोरी करने की प्रेरणा देना, चोरी की प्रशंसा करना. चोरी के
धन को कम मूल्य के लोभ से चोर से लेना, अनुचित रीति से धन कमाना, असली वस्तुओं में नकली वस्तुएँ मिलाकर दूसरों को ठगना और बाँट, तराजू आदि कम या अधिक परिमाण के रखना आदि कार्यों से अचौर्य व्रत
में दोष लगता है। 4. राग के कारण दूसरों के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना, काम के अंगों को
छोड़कर अन्य अंगों से क्रीड़ा करना, मन-वचन-काय से कुशील का पालन करना, कामसेवन की अधिक लालसा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियों की संगति रखना-ये पाँच ब्रह्मचर्य व्रत के दोष हैं। 5. आवश्यकता से अधिक वाहनों का प्रयोग करना, अधिक लाभ की इच्छा से
अधिक धन संग्रह करना, लाभ होते हुए भी अधिक लाभ की लालसा रखना, व्यापारादि में दूसरों के अधिक लाभ से ईर्ष्या द्वेष करना लोभ के वश किसी पर शक्ति या न्याय से अधिक भार लादना-ये परिग्रहपरिमाण व्रत के दोष हैं।
इन पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस, मधु के त्याग को श्रावक के अष्ट मूलगुण कहते हैं।
4. गुणव्रत अधिकार
गुणव्रत अर्थात् अणुव्रत के साथ और अधिक व्रतों का पालन करते हुए मूलगुणों का पालन करना। इस अधिकार में दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत को समझाया है। इन तीन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं, क्योंकि श्रावक जब आठ मूलगुणों की वृद्धि करता है, तब ये व्रत उन गुणों की वृद्धि करते हैं। अर्थात् इन व्रतों के कारण मूलगुणों में श्रेष्ठता आती है।
क. दिग्व्रत पहला व्रत है, दिग्व्रत। दिग्व्रत अर्थात् दिशाओं के व्रत। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चार दिशाएँ तथा अग्नि, नैऋत, वायव्य, ईशान चार विदिशाएँ, ऊर्ध्वदिशा तथा अधोदिशा-ये दस दिशाएँ होती हैं। इन दसों दिशाओं में जाने की एक
रत्नकरण्ड श्रावकाचार :: 113