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और अनन्तानन्त संख्याओं का भी कथन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त गणित की मौलिक प्रक्रियाओं (वर्ग, वर्गमूल, घन आदि) का भी वर्णन है। 3. क्षेत्रप्ररूपणा इसमें 92 सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणा क्रम से जीवों के क्षेत्र का कथन आया है। इसमें सूत्रकर्ता आचार्य ने विषय को बहुत ही मनोहर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्रश्नोत्तर के रूप में इस गम्भीर विषय को प्रस्तुत किया है। जैसे
• सासादन सम्यक्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ?
उत्तर : लोक के असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। • सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रों में रहते हैं ? उत्तर : सर्वलोक में रहते हैं। • तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? उत्तर : सर्वलोक में रहते हैं।
स्पष्ट है कि एक ही सूत्र में प्रश्न और उत्तर इन दोनों की योजना की गयी है। वास्तव में यह आचार्य की प्रतिभा है कि उन्होंने आगम के गम्भीर विषय को संक्षेप में प्रश्नोत्तर रूप में उपस्थित किया है। 4. स्पर्शन-प्ररूपणा इसमें 185 सूत्र हैं। इनमें नाना गुणस्थान और मार्गणावाले जीव स्वस्थान, समुद्घात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्र का स्पर्श करते हैं, इस बात का विवेचन किया है।
स्वस्थान : जीव जिस स्थान पर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है और उस शरीर के द्वारा जहाँ तक वह आता-जाता है वह विहारवत्-स्वस्थान कहलाता है।
समुद्घात : वेदना, कषाय आदि किसी निमित्त विशेष से जीव के प्रदेशों का मूल शरीर के साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फैलना समुद्घात कहलाता है। इसके सात भेद हैं।
उपपाद : अपनी पूर्वपर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय में जन्म ग्रहण करना उपपाद है।
षट्खण्डागम :: 81