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4. त्रिचूलिका अधिकार इस अधिकार में तीन चूलिकाएँ हैं
1. नवप्रश्नचूलिका : इस चूलिका में नौ प्रश्नों का समाधान किया गया है। 2. पंचभागहारचूलिका : पाँच भागहार का वर्णन इस चूलिका में है। इन
भागहारों के द्वारा शुभाशुभ कर्म जीव के परिणामों का निमित्त पाकर अन्य परिवर्तन करते हैं। जैसे-कर्म शुभ हैं और जीव के परिणाम अशुभ हैं तो अशुभ परिणाम हो जाता है और शुभ परिणामों के निमित्त से पूर्व के बँधे हुए असातावेदनीय कर्म (कष्ट देनेवाले कर्म) सातावेदनीय (सुख देनेवाले
कर्म) कर्म के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। 3. दशकरण चूलिका : इस चूलिका में दश करणों का कथन किया है।
करण क्रिया का नाम है। कर्मों में ये दश क्रियाएँ होती हैं। इन करणों का वर्णन इस अधिकार में किया है।
5. बन्धोदयसत्त्वयुक्त स्थान-समुत्कीर्तन अधिकार एक जीव के एक ही समय में जितनी प्रकृतियों का बन्ध, उदय, सत्त्व सम्भव है उनके समूह का नाम स्थान है। इस अधिकार में पहले आठों मूलकर्मों को लेकर और फिर प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों को लेकर बन्ध-स्थानों, उदय-स्थानों और सत्त्व-स्थानों का कथन है। यह अधिकार गुणस्थान क्रम से विचार करने के कारण अधिक विस्तृत अधिकार है। 6. प्रत्यय अधिकार इस अधिकार में कर्मबन्ध के कारणों का कथन है। मूल कारण चार हैंमिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। इन चार कारणों के 57 (सत्तावन) भेद हैं।
मिथ्यात्व के 5 भेद, अविरति के 12 भेद, कषाय के 25 भेद, योग के 15 भेद कुल 57 भेद हैं।
गुणस्थानों में इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययों का कथन इस अधिकार में किया गया है। किस गुणस्थान में बन्ध के कितने प्रत्यय होते हैं, यह भी बताया है। 7. भावचूलिका अधिकार इस अधिकार में औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और परिणामिक-इन
66 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय