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1. प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार : (प्रकृतियों के स्वरूप का निरूपण) प्रकृति समुत्कीर्तन का अर्थ है -कर्म प्रकृतियों का कथन।
__ इसके दो भेद हैं-मूल प्रकृति समुत्कीर्तन और उत्तर प्रकृति समुत्कीर्तन। अर्थात् मूल प्रकृतियों के स्वभाव का निरूपण (वर्णन) और उत्तर प्रकृतियों के स्वभाव का निरूपण। प्रकृति समुत्कीर्तन को जाने बिना स्थान-समुत्कीर्तन आदि को नहीं जाना जा सकता। प्रकृति का अर्थ है-स्वभाव, कर्म का स्वभाव। __ इस कर्मकाण्ड में कर्मों और उनकी विविध अवस्थाओं का कथन किया है।
इसमें जीव और कर्मों के अनादि सम्बन्ध का वर्णन कर कर्मों के आठ भेदों के नाम, उनके कार्य, उनका क्रम और उनकी उत्तर प्रकृतियों में से कुछ विशेष प्रकृतियों का स्वरूप 86 गाथाओं में किया है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायये आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ 148 हैं।
इन प्रकृतियों का विस्तार से वर्णन इस अधिकार में किया है।
2. बन्धोदयसत्त्व अधिकार इस अधिकार में कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्व (सत्ता) का गुणस्थान एवं मार्गणाओं के अनुसार वर्णन है।
बन्ध (कर्मों का बाँधना), उदय (कर्मों का उदय में आना), सत्त्व (जब कर्म न उदय में आते हैं, न ही नष्ट होते हैं, तब सत्त्व होता है अर्थात् जैसे धूल मिट्टी पड़ी रहती है, उसी तरह कर्मों का पड़े रहना सत्त्व है। 3. सत्त्वस्थान भंग अधिकार भंग का अर्थ है-प्रकतियों का परिवर्तन। इस अधिकार में भंग के साथ सत्त्व का कथन किया है। एक समय में एक जीव के संख्याभेद को लिये हुए जो प्रकृतिसमूह का सत्त्व पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं और समान संख्यावाली प्रकृतियों में जो प्रकृतियों का परिवर्तन होता है उसे भंग कहते हैं।
देवगति में और नरकगति में मनुष्य और तिर्यंच दो ही आयु का बन्ध होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंच, देव आयु का ही बन्ध करते हैं तथा सम्यग्दृष्टि देव और नारकी, मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं।
गोम्मटसार :: 65