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धीरे-धीरे व्रत आना शुरू हो जाते हैं और हम कैसे पाँचवें गुणस्थान वाले अच्छे श्रावक बन जाते हैं।
13. संयमलब्धि अधिकार
तेरहवें अधिकार में समझाया गया है कि यह जीव पाँचवें गुणस्थान से धीरे-धीरे अधिक ऊपर उठता है और मुनि बन जाता है।
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14. चारित्रमोहोपशमनाधिकार
चौदहवें अधिकार में समझाया है कि फिर यह और ऊपर उठता है। ध्यान करता है। ध्यान में मग्न होने लगता है। बार-बार ऊपर उठता है। नीचे गिरता है। बारबार ध्यान करता है। ध्यान भंग होता है । फिर ध्यान करता है । इस सारे उत्थानपतन का वर्णन इस अधिकार में है । वह ध्यान में बार-बार उठता भी है और बारबार गिरता भी है।
15. चारित्रमोहक्षपणाधिकार
पन्द्रहवें अधिकार में इस बात का वर्णन है कि कैसे हमारा सारा मोह क्षय हो गया, कैसे वह नष्ट हो गया। कैसे आत्मा पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ बन गया । पूर्ण शुद्ध बन गया। सिद्ध बन गया। मुक्त अवस्था में पहुँच गया । यह बात इस अधिकार में बताई है।
इस तरह इन पन्द्रह अधिकारों में बताया है कि मोह कैसे आत्मा में था, कैसे धीरेधीरे नष्ट होना शुरू हुआ, कैसे धीरे-धीरे नष्ट हुआ, कैसे धीरे-धीरे साफ होना शुरू हुआ और कैसे यह आत्मा पूरी तरह धवल होकर, शुद्ध होकर मुक्त बन गया। बहुत ही व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है।
यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । हमारा भाग्य है कि हमको यह महान ग्रन्थ मिला है। प्राचीन काल में यह ग्रन्थ मिलता ही नहीं था । पाण्डुलिपि के रूप में छुपा हुआ था। लेकिन अभी विद्वानों की मेहनत से यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करके हमको अपने मोह पर विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यही इस ग्रन्थ का मूल सन्देश है।
76 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय