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है। मंगलाचरण में चन्द्रप्रभ भगवान को प्रणाम किया है। कहा है कि हे चन्द्रप्रभु भगवान, आप चन्द्रमा के समान धवल शरीर के धारी हो और अन्तस से भी आप केवलज्ञानशरीरी हो। आप समस्त कर्मकलंक से रहित धवल शुद्ध आत्मा बन गये, इसलिए मैं भक्तिपूर्वक मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यहाँ धवल शब्द का अर्थ चन्द्रप्रभ भगवान के शुद्ध धवल स्वरूप से निकाला है।
इसके बाद दूसरे श्लोक में चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया है। तीसरे श्लोक में महावीर भगवान को नमस्कार किया गया है। चौथे श्लोक में माँ श्रुतदेवी को नमस्कार किया गया है। पाँचवें श्लोक में गणधर देव रूप समुद्र को नमस्कार किया गया है।
छठे श्लोक में वीरसेन आचार्य को नमस्कार किया गया है। सातवें श्लोक में आचार्य नागहस्ती और आर्यमक्षु को नमस्कार किया गया है। और फिर आठवें श्लोक में आचार्य यतिवृषभ को नमस्कार किया गया है।
मंगलाचरण के बाद पूरा ग्रन्थ तीन भागों में बाँटा गया है-1. मोह, 2. राग 3. द्वेष।
जयधवला ग्रन्थ में मोह का वर्णन किया है, क्योंकि मोह ही एक ऐसी चीज है जो आत्मा को मलिन करता है। यदि मोह को कोई जीत लेता है तो उसकी आत्मा धवल बन जाता है। यही इसका मूल सन्देश है। यह मोह ही है, जिसने हमारी आत्मा को काला कर रखा है। इतना विशालकाय ग्रन्थ एक ही बात समझने के लिए लिखा गया है कि मोह का त्याग करो। मोह वास्तव में आत्मा को मलिन करता है, काला करता है। मोह को यदि छोड़ दिया जाए तो आत्मा साफ हो जाता है। जिस तरह कोई कपड़ा गन्दा हो जाए फिर धो दिया जाए तो वह साफ हो जाता है। ठीक इसी तरह हमारी आत्मा मोहरूपी मैल से काली हो रही है। और उसे शुद्ध करना हो तो हमें इस मोह को जीतना चाहिए, नष्ट करना चाहिए। तब आत्मा धवल बनेगी, उज्ज्वल बनेगी। इस ग्रन्थ में यही बात विस्तार से समझा रहे
सर्वप्रथम हम लोगों को समझना चाहिए कि मोह का अर्थ क्या है। मोह यानी माँ को पुत्र से जो मोह होता है वह मोह नहीं है। धन, दौलत एवं शरीर का राग ही मोह नहीं है। अपितु यहाँ पर 'मोह' शब्द में आत्मा के सारे विकारों को लिया है।
मोह दो तरह का है-एक दर्शनमोह, दूसरा चारित्रमोह। हमारी आत्मा में अनन्त गुण हैं। लेकिन उनमें सबसे ज्यादा दोष दो ही गुणों
72 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय